Tuesday, February 9, 2016

आलेख योगेन्द्र व्योम ..गीता पंडित आधुनिकता-बोध से सम्पन्न नवगीतों की कवियित्री

.......
.......... 
 
आधुनिकता-बोध से सम्पन्न नवगीतों की कवियित्री गीता पंडित
 
यों तो ‘नवगीत’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम् 1958 में प्रकाशित समवेत संकलन ‘गीतांगिनी’ के संपादकीय में राजेन्द्रप्रसाद सिंह ने किया था किंतु वास्तव में नवगीत का आरंभ निराला के ‘नव-गति नव-लय, ताल-छंद-नव’ से ही माना जाता है। निराला से आरंभ हुई नवगीत की यात्रा आज भी अपनी पूरी ऊर्जा के साथ गतिमान है। इस यात्रा में नवगीत साधकों वीरेन्द्र मिश्र, उमाकांत मालवीय, शलभ श्रीराम सिंह, शंभूनाथ सिंह, शिवबहादुर सिंह भदौरिया, देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, गुलाब सिंह, माहेश्वर तिवारी, नईम, कैलाश गौतम आदि का नवगीत को उत्तरोत्तर पुष्टता प्रदान करने में बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है जिन्होंने नवगीत की रचनाधर्मिता को गति प्रदान करने के साथ-साथ उसे नया स्वरूप भी दिया और भाषाई सहजता भी। हाँ, नवगीत-सृजन में महिला रचनाकारों की संख्या अपेक्षाकृत कम रही। नवगीत की साधना करने वाली वरिष्ठ पीढ़ी में जहाँ राजकुमारी ‘रश्मि’, शान्ति सुमन का कृतित्व उल्लेखनीय रहा वहीं वर्तमान पीढ़ी की डा. यशोधरा राठौर, मधु शुक्ला, सीमा अग्रवाल, संध्या सिंह की पंक्ति में एक महत्वपूर्ण नाम गीता पंडित का आता है जिनके नवगीत अपने समय के यथार्थ को नितांत नए ढंग से अभिव्यक्त करते हैं।
 
नवगीत के प्रथम पांक्तेय रचनाकार श्री देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ द्वारा संपादित महत्वपूर्ण व दस्तावेज़ी नवगीत संकलन ‘यात्रा में साथ-साथ’ में नवगीत के शीर्षस्थ कवि श्री माहेश्वर तिवारी का महत्वपूर्ण कथन है- ‘नवगीत न केवल आधुनिकता-बोध से सम्पन्न रचनात्मक विधा है वरन् सामाजिक सरोकारों के प्रति रचनात्मक ज़िम्मेदारी से लैस होना भी उसकी जागरूकता की पहचान है। यह बड़बोलेपन से मुक्त आत्मीय-संवाद है। जनपक्षधरता व आमजन के संघर्ष सहित समकालीन जीवन की दुरूह एवं जटिल जीवन-स्थितियाँ अब इसकी अभिव्यक्ति की सीमा से परे नहीं रह गई हैं।’ गीता जी के नवगीत भी आधुनिकता-बोध से सम्पन्न और सामाजिक सरोकारों के प्रति रचनात्मक रूप से पूरी ज़िम्मेदारी का निर्वहन करते हैं। आज के फेसबुक और व्हाट्सएप के आभासी समय में हम हज़ारों लोगों के साथ होते हैं, हज़ारों लोगों के साथ हमारा परिचय-संपर्क होता है लेकिन अपनेपन चुम्बकीय भाव कहीं नज़र नहीं आता। इससे अधिक विस्मयकारी बात हो नहीं सकती कि हज़ारों किलोमीटर दूर बैठे व्यक्ति जिससे हम कभी मिले तक नहीं, से तो हम आत्मीयता दर्शाते हैं लेकिन अपने घर के भीतर अपने स्वजनों से ढंग से बात तक नहीं करते, मन में खटास रखते हैं। गीता जी अपने एक नवगीत में इस पीड़ा को अभिवन रूप से अभिव्यक्त करती हैं-
 
‘इतने ऊँचे उड़े गगन में
  पंख कटे सिसकायें
  मन की खूँटी टँगे हुए हैं
  किसको ये दिखलायें
 लैपटॉप में सिमट रह गया
    जन-मानस का प्यार
  सूनी अँखियाँ बेबा जैसे
  भूल चलीं त्योहार’
 
परिवार के भीतर अपनत्व की छीजन को गीता जी अपने इसी नवगीत में आगे विस्तार देती हैं-
 
  ‘वृद्धाश्रम खुल गए कि देखो
 अपने बने बिराने
 बूढ़ी अँखियाँ खोज रही हैं
 किसको अपना माने’
 
महानगरीय जीवन जीना भी किसी आभासी संसार के बीच जीने जैसा ही है, यहाँ आपसी संबंधों में औपचारिकता और कृत्रिम अपनापन हर पल मन को कुंठित करता रहता है। महानगरों की इससे बड़ी विद्रूप स्थिति और क्या हो सकती है कि कॉलोनियों और अपार्टमेन्ट्स के मकानों की पहचान नंबर से होती है उनमें रहने वाले लोगों के नाम से नहीं। आपस का जुड़ाव और बतियाहट कहीं खो-सी गई है। इन विपरीत परिस्थितियों से खिन्न गीता जी को कहना पड़ता है-
 
‘एक फ़्लैट में सिमट रहा है
 सारा जहां अजाना
 रिश्तों की चूड़ी टूटी है
 घाव करे मनमाना
 किससे बोले बतियायें हम
 कील रहा सपने
 यह खालीपन महानगर का
 लील रहा अपने’
 
एक अन्य नवगीत में भी गीता जी अपने मन की इन्हीं पीड़ाओं को प्रतीकों के माध्यम से बहुत ही प्रभावशाली रूप से अभिव्यक्त करती हैं-
 
‘शब्द की जो बाँसुरी थी
 आज सोयी-सी
 पड़ी है
 मीर की सुंदर ग़ज़ल-सी
 मूक कोने में
 खड़ी है’
 
इन विद्रूप परिस्थितियों के प्रश्नों का हल भी गीता जी सुझाती हैं-
 
‘स्वप्न सभी सतरंगी लेकिन
 श्यामल से होकर आयें
 मन के मौन बगीचे में फिर
 हरी दूब बोकर आयें’
 
 गीता पंडित जी के नवगीत पाठक के मन पर अपने हस्ताक्षर करते हैं और नवगीत के उजले भविष्य की आहट देते हैं। भोपाल के युवा नवगीत कवि मनोज जैन ‘मधुर’ की नवगीत के संदर्भ में महत्वपूर्ण पंक्तियाँ हैं-
 
‘नव कलेवर
 नई भाषा
 पुष्टता ले छंद में
 लोक-अंचल की
 विविधता
 को संजोकर बंद में
 प्राण पर छाने लगे नवगीत
 कंठ अब गाने लगे नवगीत’।
 
हालांकि हिन्दी साहित्य-जगत में पूर्वाग्रह से ग्रस्त यह धारणा बन गई है या बना दी गई है कि आज हिन्दी कविता की मुख्य धारा में गीत और नवगीत का कोई अस्तित्व या महत्व नहीं है तभी तो आए दिन इस संबंध में फतबे ज़ारी होते रहते हैं, जैसाकि पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचारपत्र के साप्ताहिक साहित्यिक पृष्ठ पर नई कविता के पक्षधर एक विद्वान आलोचक ने कहा-‘गीत के स्वर्णिम दिन तो अब नहीं रहे और ना ही लौटने वाले हैं’, लेकिन ऐसा नहीं है। इस संबंध में कविता-64 के सुधी संपादक श्री ओम प्रभाकर का कथन बहुत ही महत्वपूर्ण है, वह कहते हैं-‘नवगीत नई कविता की प्रतिक्रिया नहीं है, फलतः वह नई कविता का विरोधी नहीं है। साहित्य की विधायें परस्पर विरोधी कभी नहीं होतीं’। आज के नवगीत में जीवन की बुनियादी सच्चाईयाँ भी केन्द्रस्थ हैं और प्रयोगशीलता भी। नवगीत के रूप में आज का गीत अपने समय की आँखों में आँखें डालकर यथार्थ को बयान भी कर रहा है, सामाजिक बिद्रूपताओं पर कटाक्ष भी कर रहा है और देश की अव्यवस्थाओं पर चोट करते हुए उजली दिशाएँ भी दिखा रहा है। नवगीत अपनी गंभीर अभिव्यक्ति एवं मर्यादाओं के चलते उत्तरोत्तर लोकप्रियता के शीर्ष की ओर अग्रसर है। 
 
- योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
                                      ए.एल.49, सचिन स्वीट्स के पीछे,
                             दीनदयाल नगर-।, काँठ रोड,
मुरादाबाद (उ0प्र0)
चलभाष- 94128.05981      

No comments: