Friday, September 18, 2015

बतियाता है रात-रातभर ___ गीता पंडित


बतियाता है रात-रातभर ___ गीता पंडित

 
उचक-उचक कर
करे प्रतीक्षा
बेला जाने किसकी
सुरभित मन- आंगन के द्वारे
लग जाती है हिचकी

बतियाता है रात - रातभर छेड़े मन के साज
अंतस की खोली में बैठा
भूल रहा है लाज

वैसे अच्छी
लगती बातें
करता है वो जिसकी
 
मंदिर की ड्योढ़ी आ बैठे पावन मन कर जाए
मीरा की अलकों में आकर
सपने नये जगाए
 
झुमके से हंसकर बतियाये
हँसी रुके ना उसकी  
 
विरह-वेदना की अग्नि में जो मनवा हैं पलते
बेला की सुरभित बेला में
नके तन-मन जलते
 
जबकि बेला की साधें है
देखो सारी रस की |

गीता पंडित

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