Friday, April 18, 2014

कुछ कवितायें ..... हरीशचन्‍द्र पांडे

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'हिजड़े'___

ये अभी अभी एक घर से बाहर निकले हैं 
टूट गए रंगीन गुच्छे की तरह 
काजल लिपस्टिक और सस्ती खुशबुओं का एक सोता फूट पड़ा है 

एक औरत होने के लिए कपडे की छातियां उभारे
ये औरतों की तरह चलने लगे हैं 
और औरत नहीं हो पा रहे हैं 

ये मर्द होने के लिए गालियाँ दे रहे हैं 
औरतों से चुहल कर रहे हैं अपने सारे पुन्सत्व के साथ 
और मर्द नहीं हो पा रहे हैं 
मर्द और औरतें इन पर हंस रहे हैं 

सारी नदियों का रुख मोड़ दिया जाए इनकी ओर
तब भी ये फसल न हो सकेंगें 
ऋतू बसंत का ताज पहना दिया जाए इन्हें 
तब भी एक अन्कुवा नहीं फूटेगा इनके 
इनके लिए तो होनी थी ये दुनिया एक महासिफर 
लेकिन 
लेकिन ये हैं की
अपने व्यक्तित्व के सारे बेसुरेपन के साथ गा रहे हैं 
जीवन में अन्कुवाने के गीत 
ये अपने एकांत के लिए किलकारियों की अनुगूंजें इकठ्ठा कर रहे हैं 

विद्रूप हारमोनों और उदास वल्दियत के साथ 
ये दुनिया के हर मेले में शामिल हो रहे हैं समूहों में 

नहीं सुनने में आ रही आत्महत्याएं हिजडों की 
दंगों में शामिल होने के समाचार नहीं आ रहे 

मर्द और औरतों से अटी पड़ी इस दुनिया में 
इनका पखेरुओं की तरह चुपचाप विदा हो जाना
कोई नहीं जानता !

……







किसान और आत्महत्या __

उन्हें धर्मगुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की

क्या नर्क से भी बदतर हो गई थी उनकी खेती

वे क्यों करते आत्महत्या
जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था
जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह
प्रवहमान थे
उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें
खिंची चली आई थीं
उनका आत्म तो कपास की तरह उजार था
वे क्यों करते आत्महत्या

वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह
बरतते थे
वे कड़ें थे फुनगियाँ नहीं
अन्नदाता थे, बिचौलिये नहीं
उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपनी संरक्षित
ऊर्जा से थपथपाती थी
उनके खेतों के नाक-नक्श उनके बच्चों की तरह थे

वो पितरों का ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए 
वो आरुणि के शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
मिट्टी का
जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए

कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना
और दुर्नीति को नीति

....... 





देवता ___

पहला पत्थर
आदमी की उदरपूर्ति में उठा

दूसरा पत्थर
आदमी द्वारा आदमी के लिए उठा

तीसरे पत्थर ने उठने से इन्कार कर दिया

आदमी ने उसे
देवता बना दिया

……




गुल्लक___

मिटटी का है
हाथ से छूटा नहीं की
                            टूटा
सबसे कमजोर निर्मिती है जो
उसी के भीतर बसे हैं बच्चों के प्राण

बच्चे जब दोनों हाथों के बीच ले कर बजाते हैं इसे
तो पैसों भरा एक ग्लोब बजने लगता है

कभी कभी मोर्चा हार रहे माँ बाप के सामने बच्चे
इन्हें ले कर भामाशाह बन कर खड़े हो जाते हैं

जब मदद के सारे स्रोत हाथ खड़ा कर देते हैं
जब कर्ज़ का मतलब भद्दी ग़ाली हो जाता है
अपने-अपने गुल्लक लिए खड़े हो जाते हैं नन्हें
जैसे दुनिया के सारे कर्ज़ इसी से पट जाएँगे

ये वही गुल्लक हैं
जिसमें पड़ते खड़े सिक्के की खनक सीधे उनकी आत्मा तक पहुँचती है
जिन्हें नींद में भी हेरती रहती हैं उनकी उँगुलियाँ
जिन्हें फूटना था भविष्य में गले तक भरा हुआ
वही बच्चे निर्मम हो कर फ़ोड़ने लगे हैं इन्हें... ...

और अब जब छँट गए हैं संकट के बादल
वही चक्रवृद्धि निगाह से देखने लगे हैं माँ-बाप को
मन्द-मन्द मुस्कराते

किसी कुम्हार से पूछा जा सकता है
इस वक्त कुल कितने गुल्लक होंगे देश भर में
कितने चाक पर आकार ले रहे होंगे
कितने आँवों पर तप रहे होंगे
और कितनी मिटटी गुँथी जा रही होगी उनके लिए

पर जो चीज़ बनते-बनते फूटती भी रहती है
उसकी संख्या का क्या हिसाब
किसी स्टॉक एक्सचेंज में भी तो सूचीबद्ध नहीं हैं ये
कि कोई दलाल उछल-उछल कर बताता इनके बढ़ते गिरते दाम

मिटटी के हैं ये
हाथ से छूटे नहीं कि
                     टूटे
पर इतना तो कहा ही जा सकता है किसी कुम्हार के हवाले से
दुनिया से मुखातिब हो कर
कि ऐ दुनिया वालो !
भले ही कच्चे हों गुल्लक
पर यह बात पक्की है
जहाँ बचपन के पास छोटी-छोटी बचतों के संस्कार नहीं होंगे
वहाँ की अर्थव्यवस्था चाहे जितनी वयस्क हो
कभी भी भरभरा कर गिर सकती है ।
……


प्रेषिता 
गीता पंडित 

साभार कविता कोश से 

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