Tuesday, January 21, 2014

शुभकामना का शव। .... चन्दन पांडेय


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तैंतीस वर्षीय कामना खुद के लिए तो मर चुकी थी पर आए दिन कोई न कोई उसे बताता कि वो अभी जीवित है. यह सुन कर वो उठती. खुद को समेटती, जैसे उसके जिम्मे काम बहुत हों या कुछ कदम चलती और फिर अपनी परछाईं पर ढह जाती. उन दिनों लू तेज थी या उसे एड्स होने की अफवाह, बता पाना कठिन है पर वो दस-पचास कदम चलते ही निढाल पड़ जाती, जैसे आज ही वो दक्खिन दिशा वाले पीपल की जड़ों पर मरणासन्न पड़ी हुई थी. दलसिंगार चरवाहे ने उसे अपनी लाठी से कोंच कर बताया कि वो अभी जीवित है और उसे अपने घर जाना चाहिए. कहे तो वो मदद करे. मदद की बात पर कामना ने अपनी समूची शक्ति बटोर कर दलसिंगार के लिए दो तीन गालियां फुसफुसाईं और फिर वहीं निढाल हो गई.
दिन-ब-दिन कामना का वजन घटता जा रहा था. वह इतनी कमजोर और पस्तहाल हो गई थी कि अपने ही खर्राटों से उसकी जाग खुल जाती. गांववासियों की राय थी: ऐसा उसके लड़ाकूपन की वजह से है. हर दूसरे-तीसरे दिन अपने ब्लाउज की सिलाई चुस्त करते हुए वह भी सोचती थी, आखिर उसके शरीर का वजन जा कहां रहा है. सौ कदम की दूरी तय करने में दो-दो या तीन बार सुस्ताती थी फिर भी जवाब हर किसी का देती थी.
पहले उस पर वैधव्य गहराया. दो वर्ष बाद ससुराल वालों ने उसके लड़ने झगड़ने से आजिज आकर उसे नईहर भेज दिया. छोटा हाथी ( टाटा एस नामक छोटी ट्रॉली ) में पीछे बैठ कर विदा हुई. ड्राईवर के साथ उसका भतीजा उसे छोड़ने आ रहा था. विदा से ठीक पहले, सास और दोनों जेठानियों ने खोईंछा भरा. सास ने सारा प्रयोजन बाएं हाथ से निबेरा. दाहिने हाथ में खटिया का पाया पकड़कर, कल रात, कामना को पीटने से उनका हाथ भी सूज गया था. तो भी आज अपने भाव में वो बोसीदा लग रही थीं. उन्होंने दूब, हल्दी, सिंदूर, खड़े दाने का पसेरी भर चावल और इक्कीस रुपये, कामना की कुचैली साड़ी में रखे.
इनमें कोई संवाद संभव नहीं था. सास ‘घर दुआर धरती अकास’ को बता रही थी, मनई के दुख मनई ही जाने. हम तो चाहत रहे पतोहू यही रहे पर भगवान तहार लीला अपरंपार. जेठानियों ने मुट्ठी खड़ा चावल और ग्यारह ग्यारह रुपये खोईंछा में डाले और छोटी जेठानी ने कामना के सूजे गालों पर चिकोटी मसला और छेड़ चलाया: जा छिनरो, काट मजा. कामना की गर्दन पर, पीछे की तरफ से ही, अगर कल रात खटिए के पाए न मारे गए होते तो वह जवाब जरूर देती, पर पहली बार किसी को जवाब दिए बिना जाने दिया.
नईहर तक के अधूरे रास्ते तय करते हुए उसे तकलीफ उठानी पड़ी. पर अपने गांव का सीमाना देखते ही जाने उसमें कौन सी लहर व्याप गई कि उससे ससुराल वालों को सरापना (श्राप देना) शुरू किया. फूहड़-फूहड़ गालियों की बौछार ऐसी कि छोटा हाथी के इंजन का शोर भी कामना की आवाज को पी नहीं पा रहा था. छोड़ने वाले उसे मय सामान गांव के सीवान पर ही उतार कर चले गए.
आठ वर्ष बाद नईहर – देश आकर वो भूलभूलैयां में पड़ गई थी. पहचाने लोगों की शक्ल-ओ-सीरत सब बदल गई थी. नए निहोरे लौंडे लपाड़े घूमते दीखते जो कामना की मौजूदगी कुछ इस तरह स्वीकारते थे, ‘यही है झगड़हिनिया कमिनिया.’ गांव की गलियां लोगों के ख्यालों से भी तंग हो गई थीं. गालियों और झगड़े वाले अपने शब्द भंडार में वो अर्थ भर नहीं पाती जो उसके भाव उकेरते थे, फिर भी उन्हीं किन्हीं दिनों इस आशय का कुछ सोचा: अब उसका इस दुनिया में जीने का मन नहीं करता. भौजाइयां उसे बतातीं कि कौन-सा कमरा किसका है तब भी वह मुस्कराती, यह सोचते हुए कि अपने ही घर में पता पूछना पड़ रहा है.
पहली दफा कचहरी जाने के दिन उसकी भौजाईयां उसे तैयार करा रही थीं. मंझली ने पाया कामना को बुखार है. किसी और को इत्तला करने से पहले पति को बता आई. बहन के मानस में सम्मान छेंकने की लड़ाई में हल्की बढ़त बनाते हुए मंझले ने बात बढ़ाई, ‘बहिनी को लेकर पहले वैद्य से मिलते हैं फिर कोई कोर्ट कचहरी होगी.’
कमजर्फ वैद्य ने मुस्की काटते हुए सबको सुनाया,  ‘दुल्हिन को प्रेम ज्वर है.’ वैद्य के शब्द चयन पर लोग अमूमन शर्म और हैरानी व्यक्त कर रह जाते हैं. अपनी वैद्यकी पर लोगों के यकीन के नाते वो सार्वजनिक दिल्लगियां करते रहता था. पर इधर तो लड़ाई ही दूसरी थी. दो मानसिक गरीब पर शारीरिक मजबूत घराने लड़ रहे थे और फिर आपस का बांट बखरा वाला अंदेशा भी भाइयों में व्यापने लगा था. इसलिए छोटे ने मंझले की बढ़त कुचलते हुए वैद्य को चिल्ला कर हड़काया. कहना कठिन है बहन कितनी चैतन्य थी और कितनी तरजीह इन बातों को दे रही थी.
दवा दारू लेकर वो सब तहसील कचहरी पहुंचे. कचहरी की जगह सीली थी. बाहर तिरपाल ताने उंघते अनमने से टाइपिस्ट, कचहरी की दीवार फाड़कर झांकने के अंदाज में उगे पीपल के कुछ पौधे. अधिकतर कमरों में बंद ताले. गाली-गुफ्तार से हहराता कचहरी का अहाता. कामना का अंदेशा सच साबित हुआ. ससुराल वाले भी आए थे. इन सबके बीच पायलगी देर तक चली. यह सब उम्र के मुताबिक नहीं, रिश्ते के मुताबिक हुआ. जैसे, उम्र में छोटे जेठ का पैर कामना के बड़े भाई ने छुआ. ऐसे मिल रहे थे मानो किसी और के झगड़े में आए हों. कामना किसी टाइपिस्ट की चौकी पर नीम तले बैठी रही. बिना घूंघट किए. दोनों पक्ष के वकील, वकालत छोड़कर सब कुछ जानते थे. समझौते को दुनियादारी की संज्ञा से पुकारते और चाहते थे कि इन दोनों पक्षों की सुलह भी कचहरी के बाहर हो जाए. यही तरीका है. पहले जायदाद के फायदे दिखा कर अदालती मामला दर्ज करा दो, कई दफे फीस और खर्चे तमाम वसूल लो फिर सुलहा-सुलुफ करा दो. कामना के भाई सब, बहन को उसका, सोलह बीघे वाला, अधिकार दिलाना चाहते थे.
न्यायाधीश की टुटही कुर्सी के सामने ही दोनों पक्ष आपस में भिड़ गए. ससुराल वालों में से एक ने बंदूक निकाल ली. बंदूक के दरस पाकर सबसे पहले सिपहिया सब कचहरी से फरार हो गए. ससुराल वाले अपने वकील तक को बोलने नहीं दे रहे थे. सबसे बड़ा जेठ गुस्से में बोलते-बोलते अपनी ही जीभ दांतों से काट बैठा तो संझले ने मोर्चा संभाला, जिसके पास बंदूक थी, ‘मलिकार ( न्यायाधीश को संबोधित ), मौली गांव के कुबाभन सब बहन की कमाई खाना चाहते हैं. धंधा कर लो, बहिंचो. बड़का, बहिनी को अधिकार दिलाने आए. मलिकार, अभी से हमारी पुश्तैनी जमीन के ग्राहक चक्कर लगाने लगे हैं. बहन के हिस्से की जमीन मिलते ही ये सब बेच खाएंगे.’
लंबा एकालाप चला, उसने कामना को भी खूब सुनाया, लेकिन एक गलती कर दी. गर्मा-गर्मी के दौरान कामना को एक गाली दे दी, जिसपर वह फूट कर रो पड़ी. गाली थी, भतरकाटी ( पति की हत्यारन ). इतना सुनना था कि उन बहादुरों की बंदूकें धरी की धरी रह गईं. कामना के भाइयों ने उसके जेठों और देवरों को कुर्सियों से मार-मार कर कुर्सियां तोड़ डाली. कूटने के बाद छोटे भाई ने हांफते कहा, ‘बहिन का हिस्सा तो तोर बाप भी लिखेगा रे, दोगलासन.’
ये लोग ससुराल वालों को कूंचकांचकर और बहन रुलाई रुकवाकर लौट रहे थे तब सिपहिया लोग आते दिखे. वही सब सिपाही जो दोनाली देख कर भाग गए थे. बिना किसी दरयाफ्त के उन सबों ने सफाई पेश की, ‘खैनी चूना वास्ते टहलने निकल आए थे. सब निबट गया ? पांड़े बाबा, बोहनी कराओ.’ मंझले भाई ने सौ-सौ के चार नोट अपनी जांघ पर रखे और कहा, ‘ले जाओ दरोगा जी, तेल लगाने के काम आएगा.’ बड़के ने आंख तरेर कर बात घुमाई, कहा, ‘लड़बक, और पैसे उठा कर नायब के पैंट और जांघिए में कहीं खोंस दिए.’
पुलिसवाले सोच नहीं पा रहे थे कि दरोगा वाले संबोधन से खुश हो लें या बाकी बातों का बुरा मान जाएं. बड़े भाई ने फिर कहा, ‘दरोगा बाबू, गांव की ओर कभी आओ.’ इस तरह पुलिसवाले अपनी आबरू को लेकर आश्वस्त हुए. दरअसल, इस इलाके में पुलिस इतनी बदनाम थी कि अगर ये दो-चार की संख्या में हुए और कोई गलती कर दी तो बड़ी मार पिटाई खाते थे. हां अगर दलबल के साथ हों तो फिर मामला उल्टा हो जाता था. यहां इन्हें डर था कि कुछ भी उल्टा सीधा हुआ नहीं कि सारी कचहरी मिल कर मारेगी.
भारत से दूर-देश के इस हरे भरे फिर भी अधमरे इलाके में वकीलों का बोलबाला था. अदालतों के आ जाने से जायदाद और मिल्कीयत के मामलों में पंचायती या बाहुबली फैसले अवैध हो गए थे. वकील थे कि वकालत से अलग सब करते थे. वो कोई भी राय दे सकते थे और मौके बेमौके उसे सही साबित कर सकते थे. कामना के ही मामले में जब दोनों तरफ के वकीलों ने सलाह दी, तारीखों पर आया करो, सब आते रहे. कचहरी में ही झगड़ते रहे. फिर सलाह दी, कामना जिस घर अधिक समय गुजारेगी, उसकी दावेदारी अधिक होगी. इस मशविरे पर कामना के अपहरण का सिलसिला शुरू हुआ, जो तब तक चला जब तक कामना बीमार न पड़ गई.
दोनों तरफ के लोग जब झल्लाते, ऊबते, अदालती खर्चों से चिहुंकते तो कामना की पिटाई करते थे. ऐसे तो उसका बड़ा मान-जान था पर परेशान होते ही लोग उसे ऊंच-नीच कहना शुरू करते थे, जिसके जवाब में वो गरियाती और फिर पिटती. कभी कभी वो गाली न भी दे, तब भी लोग उसे पीट बैठते. इसका पता कामना की रुलाई से चलता.
जब वो मार के बरक्स गाली दे-दे कर लड़ती और अपने ऊपर के वार बचा-बचा कर लड़ती तो उसकी रुलाई में शोर हुआ करता. चिल्लाहट. रूखी सी कर्कश रुलाई. चोट उसे फिर भी आई होती पर उसके रोने से आप समझ जाते कि यह रुलाई मुकाबले में पराजित की रुलाई है. लेकिन जब वो बेकसूर पिट जाती, बिना गाली गलौज किए, तब उसकी रुलाई राहगीरों तक के मर्म को भेद देती.
कभी-कभी तो उसका रोना इतना विह्वल कर देता कि खुद पीटने वाला भी रोने लगता, वो चाहे उसके जेठ-देवर हों या सगे भाई. भौजाईयां भी चाहती कि वो खूब पिटे पर पिटाई शुरू होते ही वो ननद के पक्ष में रोने लगतीं. ऐसे में पीट चुके लोगों का तर्क होता था – क्या हुआ जो उसने मुंह से गाली नहीं दी, पर उन्होंने गाली को उसके गले में ही देख लिया था. कामना जिससे भी पिटती, उससे बातचीत बंद कर देती थी. धीरे-धीरे नईहर गांव के दर्जी से अलग कोई उससे बात करने वाला नहीं बचा. सबको इसका दु:ख था कि क्यों नहीं कामना खुद से अपनी जायदाद उनके नाम कर देती है.
ससुराल वालों को कामना का व्यवहार इतना अखरा कि उन्होंने कामना के पति वाली बीमारी का हल्ला कामना के नाम पर फूंक दिया. भाइयों का भी यही हाल लेकिन वे इस उम्मीद में चुप थे कि आज नहीं तो कल, सब मिलना ही है. कामना के सातों भाइयों में बंटवारा हो चुका था और सिवाय कामना की जायदाद के वो किसी मुद्दे पर एकमत नहीं हो सकते थे.
दर्जी की बात दूसरी थी. जब से कामना नईहर लौटी, उसका स्वास्थ्य गिरता चला जा रहा था. आए दिन, कपड़े चुस्त कराने या पुराने कपड़ों को उघड़वा कर नया बनवाने के लिए कामना दर्जी तक जाया करती.
दर्जी का नाम मियां जी पड़ चुका था और उन्होंने अपने डरे सहमेपन के नाते गांव में अच्छा खासा सम्मान  कमा रखा था. जब भी कामना वहां जाती, देर तक बैठती. लोग आते, अक्सर औरतें और दर्जी से बातचीत के बीच कामना को ऐसे देख लेते जैसे वो किसी परिचित गांव की अपरिचित है. वो वहीं बैठी रहती, जब लोग चले जाते तो कुछ न कुछ बतियाती. होशियारों का शुबहा था कि दर्जी ही कामना का वकील बना है.
जबकि कामना मियां जी से जो बातें करती उसका कुल लक्ष्य होता था, जैसे वह दर्जी के माध्यम से अपने जीवन को जानना समझना चाहती हो. कामना का एकमात्र अपराध अकेला पड़ जाना था. इतना वो समझती थी. इसका दुख भी उसे था. वो दर्जी से अपने बारे में. अपनी शादी के बारे में पूछती. अपने पिता का चेहरा वो भूलने लगी थी. पिता उसे खास कोई प्यार भी नहीं करते थे. फिर भी खोई हुई उम्मीद की रोशनी की तरह उनके बारे में पूछती. मियां जी सिलाई मशीन की धुन पर उसे बहुत कुछ सुनाते. कुछ स्मृतियों के आसरे, कुछ गढ़कर, कुछ अपने जीवन का मिलाकर.. कामना के जीवन के किस्से पूरते.
मियां जी के किस्सों पर सवार कामना अपना जीवन देखती. पलटती और पाती कि उसे सब हूबहू याद आ रहा है. मसलन बचपन से ही उसके झगड़ालू होने को उसके खिलाफ इस्तेमाल किया गया. गांव में लड़ाका के नाम से वह मशहूर थी. कोई नहीं जानता, पंद्रह बीस सगे-चचेरे भाई-बहनों के बीच कब क्या हुआ कि कामना झगड़ालू दर झगड़ालू होती गई. लोग उसके इस स्वभाव का फायदा उठाते थे. किसी भी गलती के लिए उसे दोषी ठहराते हुए जैसे सब यही मान कर चलते थे कि झगड़ालू है तो भूल गलती इसी की होगी.
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नीलाकाश क्षेत्रीमयूम
कामना के ब्याह में भी यह आरोप इस्तेमाल हुआ. ब्याह तय होने के तीन-चार महीने तक लोग यही बातें करते रहे कि खेतिहर के घर जा रही है– भाग्यशाली है, दूल्हे के पिता का नाम काम बड़ा है, बरसों-बरस से दोनों पहर का चूल्हा इनके घर जलता रहा है, दूल्हे का बड़ा भाई कचहरी में चपरास लगा है.
शादी तय तपाड़ होने के पांच महीने बाद कामना की मां को यह ख्याल आया, दूल्हा कैसा होगा ? किसी ने देखा भी है या नहीं ? कामना के पिता से पूछा. उनका कहना था, लड़का क्या देखना, यह नसीब की बात है. कामना के भाई ने बताया, ‘लड़का ट्रक चलाता है, जल्द ही अपना ट्रक खरीद लेगा, अभी ट्रक लेकर निकला हुआ है, ब्याह के दिनों ही आएगा.’ किसी ने पूछा, ‘लड़के का नाम ?’ दरअसल लड़के के पिता, घर बार का नाम इतना बड़ा और व्यापक था कि दूल्हे का नाम किसी को मालूम ही नहीं था.
मां को शायद पसंद न आया. सोचा, दामाद ट्रक घुमाता है, ऐबी होगा. जब तक वो शिकायत कर पाती उससे पहले ही कामना के सात भाई, सात भाभियां, तीन बहनें, तीन जीजा और पिता, सब ने समवेत स्वर में कहा- ऐसी झगड़ालू के लिए और भला कैसा लड़का चाहिए. भाइयों ने चूंकि मिलकर अभी कुछ ही दिनों पहले इसे मारा पीटा था इसलिए उनसे और उनके परिवारों से बातचीत बंद थी. वजह, चुरा कर दूध पीना, बतलाई गई थी.
कामना के बड़े भाई रामआसरे को कुछ एहसास हुआ और उन्होंने हजाम को बुलावा भेजा. हजाम आया, बख्शीश में ग्यारह रुपये पाकर नायगांव की राह चल पड़ा, जहां दूल्हे का नाम मिल सकता था.
कामना बिहंसते हुए कहती थी, ‘वहां भी सबको पानी पिला दूंगी.’ लोग मजे लेते थे. वो जानती थी, लोग आनंद ले रहे हैं इसलिए वो बढ़-चढ़ के दावे करती थी. उसका सोचना बड़ा प्यारा और जिद भरा था. वो अकेले पड़कर थक चुकी थी. हर झगड़े-झंझट के बाद वो पाती थी कि तमाम मारपीट गाली गलौज खत्म होते ही वो अकेले पड़ गई है. जिसके लिए लड़ रही होती, वो ही, पता नहीं किस मुकाम पर कामना का साथ छोड़ विरोधियों से मिल जाता. बहाना वही, ‘बहुत लहजबान है.’ कई बार तो ऐसे बद्तर मौके भी आए जब उसे अपना भोजन अलग पका कर खाना पड़ा.
कामना ने तय कर रखा था कि नए घर में प्रवेश करते ही वो अपने आप को बदल लेगी. कोई जवाबा –जवाबी नहीं. कोई झंझट नहीं. ‘कुछ भी ऐसा नहीं करना कामना’ खुद से ही कहती, ‘कि सब तुम्हें अलग-थलग कर दें.’
उम्रवान और दुनिया देखे पति के लिए शादी की रस्म ही महत्वपूर्ण थी. सो, दो से तीन दिन ही में चलता बना. ख्याल उसके भी नेक थे पर विवाह के रोमांच से वह भिज्ञ था इसलिए शुरू दिन से ही एक प्रेमिल निस्पृहता उसने पत्नी के लिए बना ली थी. कामना ने भी अपने गांव में नवेली ब्याहताओं की जो गति देखी, सुनी थी इसलिए उसे किसी बात का आश्चर्य नहीं हुआ. दुख भी नहीं. एक तो उसके साथ उसका दृढ़ निश्चय था जिसमें उसके ऊपर लगे झगड़ालू का निशान उतारना था, दूसरे गांव का उसका अनुभव कि उसने चुप-चुप रहते हुए जीना शुरू किया.
लोगों की निगाह पर वो तब चढ़ी जब उसका पति सवा साल बाद बीमार, मरणासन्न, लौटा. साथ लौटे खलासी ने बीमारी का नाम एड्स बताया और यह भी कि डॉक्टर ने कहा है, अब चलने-चलाने का वक्त आ पहुंचा है.
बीमार पति को कामना के कमरे में डाल दिया गया. कामना को उसके आगम की खबर हो चुकी थी, फिर भी सारा काम निबटा कर, घर बुहारना, चौका लीपना, बर्तन मांजना, दिया बाती करना, मसाला पीसना, खाना पकाना, ठाकुर जी को भोग लगाना,  सबको खिलाना, सास का बिस्तर लगाना, भैंस का भात चढ़ाना, खली भिगोना ..सब निबटाकर अपने कमरे में लौटी. ढिबरी की नीम रौशनी में पति को आधा-अधूरा देखा. इच्छा और अनिच्छा के बीच के किसी भाव से ही सही, पैर छुए. अशक्त पति फुसफुसाया. न मालूम कहां का चोर उसके मन में समाया कि बच्चों के लिए रखे दूध में से पसर भर निकाल पर पति के लिए लेने गई. ला ही रही थी कि पकड़ी गई. ससुराल में उसकी यह पहली पिटाई थी.
दो महीने तक स्वरूप जीवित रहा. इस बीच का उनका जीवन कामना की खातिर सर्वोत्तम साबित हुआ. ऐसा नहीं कि साथ खूब मिला. न. दरअसल साथ होने के एहसास को वह पहली मर्तबा जी रही थी. सुबह जल्द उठ कर कामना स्वरूप का बिस्तर बाहर लगा देती, यह विदाई समूचे दिन की होती थी.
एक रात स्वरूप ने हाजत की बात बताई. किसी को बताये बिना कामना खुद स्वरूप के साथ बाहर चली आई. निबटान तक वो वहीं मेड़ पर बैठी रही. यह उसके लिए पहला मौका था जब वो पति के साथ घर से बाहर निकली थी. चांद से भरी भारी रात में उसने पहल कर कहा, बैठते हैं.
अशक्त स्वरूप कामना के लिए कुछ करना चाहता था, इसलिए बैठ गया. जब बैठना मुश्किल लगने लगा तब उसने अपना सारा वजन कामना की गोद में डाल दिया. दोनों चुप थे. स्वरूप ने एक बात जरूर कही, ‘कोई भी मरना नहीं चाहता है.’ कामना आसमान देख रही थी. उसे बाबर का किस्सा मालूम नहीं था और न ही वह गीत लेकिन वह जो कुछ भी सोच रही थी कि काश पति को उसकी उम्र मिल जाए. सुबह होने तक वो दोनों वहीं रहे.
गलती भी की कि प्रेम किया.
कामना का जीवन कचहरी, वैद्य, डांट फटकार झगड़े, और बचे-खुचे आत्मसम्मान की लड़ाई में गुजर रहा था पर एक दिन ऐसा आया जब उसने बिस्तर पकड़ लिया. पहली दफा देख कर ही कम्पाउंडर या कह लीजिए डॉक्टर ने जवाब दे दिया. जिला अस्पताल ले जाने को कहा पर फुर्सत किसे थी? सब अपने अपने अंदाज से बीमारी का अनुमान लगाए बैठे थे, लाइलाज वगैरह के विशेषण जोड़े बैठे थे लेकिन कामना का व्यक्तिश: जो अनुभव था, दीगर था – वह पहला दिन जब कामना का भरोसा जीवन मात्र से दरक गया.
दर्जी वैसे साथी में तब्दील हो रहा था जो तब आपका साथ देते हैं जब आप पर फैले इल्जाम आपको लाचार बना दें: सुख दुख का साझा, गांव गिरांव की उलटबासियां. ऐसा अकुंठ अनुराग उपज आया था जो सहज सम्भाव्य होते हुए भी मर्यादितों के लिए वर्जना है. पर उस दिन दर्जी ने शरारत कर दी. इरादतन.
इस गांव की दुपहरी में सुनसान भी शोर करता है. दर्जी ने झोंक में आकर कामना को दीवार से टिका दिया. वह व्यवहार से इच्छाहीन और शरीर से अशक्त जान पड़ता था. कामना माजरे से अनजान न थी. उसकी अपनी कामनाएं होते हुए भी जैसे बंद किसी पोटली में ढंकी रह गई हों कि वो अवाक पड़ गई. निर्जोर विरोध किया. दर्जी के हाथ पांव चल रहे थे पर जाने क्यों आंखें मुंद गई थीं.
अपराध का बोध गहरा रहा हो शायद. कामना को सिलाई मशीन के पायदान तक खींचने लगा तभी कामना को अपने पति का रोग और खुद के बारे में फैली बीमारी की अफवाह याद आई. वह बिफर पड़ी. दर्जी को यह बिन बताए कि उसके भले के लिए वह यह सब कर रही है, उसने जोर का धक्का दिया. दर्जी खुली आंखों के संग दूर जा गिरा. यह सब जैसे कम हो कि बचे हुए विश्वास पर मिट्टी डालने के लिए दर्जी को दो चार तमाचे भी जड़ दिए.
कामना ठीक उसी दिन से मरणासन्न हुई. घरऊ लोगों को लगा, मर जाएगी. इसलिए पुरोहित को बुलाकर ‘बछिया दान’ कराई गई. सभी घरों सें एक या दो लोग आते, डलिए में लाया आटा दाल और दो तीन आलू कामना के शरीर से छुला कर पुरोहित को दान देते गए. पुरोहित कामना के एड्स होने के हल्ले से परिचित था इसलिए उसने तथ्य को जाहिर किए बगैर, सदाशयता के नाम पर, सारा का सारा चढ़ावा चमटोले में बांट दिया. सबसे अच्छी पोटली बाबूलाल के हाथ लगी – दाल. पांच किलो जिंदा दाल निकली. एक किलो दाल बाबूलाल ने खुद के खाने के लिए रख लिया बाकी की दाल बाजार के बनिए के हाथ बेच दिया. इसी बनिए से पुरोहित के घर का सामान खरीदा जाता था.
अनुमानों के उलट जब कामना जीवित बच गई तब सबकी उम्मीदों और जान में जान आई. वकीलों के मशविरों और उन पर अमल का दौर शुरू हुआ. नईहर पक्ष के वकील की फीस कम पड़ने लगी तो तय हुआ कि जब जमीन हिस्से में आ जाएगी तो चौथाई वकील साहब के नाम कर दिया जाएगा, जिसे सभी अधिकारियों से मिल बांट लेंगे. यह भी तय हुआ कि इस चौथाई जमीन की लिखाई, रजिस्ट्री और खारिज दाखिल का सारा काम बड़े भाई को देखना होगा. वकील ने सलाह दी, ‘कामना को ससुराल भेजो. जल्द से भी जल्द. वहां मरी तो मामला अपने पक्ष में झुकेगा.’


किस्मत या वकीलों का सीमित ज्ञान, जो कहिए, ससुराल पक्ष के वकील ने भी यही सुनाया, ‘बहू को नईहर में ही मरने दो, अपना पक्ष मजबूत होगा.’ बाबूलाल वकील को भी वकील तरण मिश्रा की डील पता पड़ चुकी थी इसलिए उसने भी चौथाई जमीन का सौदा करना चाहा. लेकिन ससुराल वाले उलटे इनकी बची-खुची फीस लूटने पर आमादा हो गए इसलिए बाबूलाल वकील को यह ख्याल तज देना पड़ा.
कामना की मृत्यु, सबके मूल में यही था. कब्जा उसकी लाश पर होना था इसलिए पहली बार बहन की निगाह में गिरने से बचने की खातिर भाइयों ने कामना का अपहरण करा दिया. वो, अशक्त बीमार खुद से ही रूठी हमारी नायिका, शाम के समय ‘लौटने’ गई थी कि कुछ लोगों ने उसकी गर्दन पर चोट पहुंचा कर उसका अपहरण कर लिया. 
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गांव में शोर. सबकी एक राय; जरूर यह ससुराल वालों की चाल है. वो कामना को अपने पास रखना चाहते हैं. सच ही सुबह-सुबह यह खबर आई कि कामना ससुराल के सीमाने पर भौंकते हुए कुछ कुत्तों के बीच पाई गई. इस गुमान में कुत्ते भूंके जा रहे थे कि उन्हें पहली बार किसी इंसान ने तरजीह दी है. नईहर में तैयारी चल रही थी कि अपहरण का यह मामला थाने में दर्ज हो. कोई सामान्य दिन होता तो केवल पट्टीदारी के लोग साथ जाते पर यह सोलह बीघे जमीन का मामला था और समूचा गांव चाह कर भी यह सोचने से खुद को मना नहीं कर पा रहा था कि काश एक टुकड़ा उसके हिस्से आ जाए.
इसके कई प्रयास हो चुके थे. कभी कचहरी के मारपीट वाले मुकदमे के बहाने अपना नाम डालने की कोशिशें, कभी सीधे सीधे अपना नाम डालने की धौंस. आज भी थाने चलने के लिए कामना के घर के बाहर लोग जमा होने लगे थे. दोपहर ढलने को आ रही थी और अभी भी लोगों का इंतजार हो रहा था. पुलिस थाने का अतिरिक्त भय न होता तो कामना के भाई इनमें से किसी को साथ न ले जाते. उन्हें भय था. पुलिस का नहीं. इस बात का कि कहीं इन लालचियों में से किसी का नाम मुकदमे में न डल जाए.
इन्हीं तैयारियों के बीच गांव के इकलौते छोटा हाथी के ड्राईवर ने आकर सूचना दी, ‘गांव के बगीचे में किसी महिला को लिटा दिया गया है.’ पंच वहीं चले. शायदा कामना है या उसका शव. थाने जाने वालों का उत्साह पानी हो गया. परिवार वाले, अलबत्ता, बागीचे तक जरूर गए. कामना जीवित और मृत के बीच कुछ थी. बड़े भाई की रुलाई फूट पड़ी. ललकार में. जैसे कोई बांध टूटता हो. यह देख सातों भाई सुबकने लगे. वो कानून और इच्छाओं के आगे मजबूर थे वरना बहन की यह दुर्दशा उनसे देखी नहीं जा रही थी.
अगर कानूनी पचड़े न होते तो सोलह बार क्या एक बार भी कामना को ससुराल भेजने की जरूरत नहीं थी. वहां उसका था भी क्या. स्मृतियां जाले का शक्ल ले चुकी थीं और परिचित खूंखार हो चुके थे. मां ने, लेकिन, विरोध किया. वो उस खटिये पर बैठ गई जिस पर कामना को लिटाया गया था. तकलीफ में कामना करवट तक नहीं बदल पा रही थी. वरना उसकी चाहत हो रही थी कि वो किसी ऐसे करवट घूम जाए जहां से इन सबका चेहरा न दिखे.
कामना को खटिये पर लिटा कर इसलिए नारियल की रस्सी से बांध दिया गया था कि गाड़ी के हिलने डुलने से वो गिर न पड़े. यह ससुराल वालों ने किया था. इसलिए नईहर वालों ने, ख्याल की खातिर, प्लास्टिक की रस्सी भी चारपाई पर बांध आए. अगर कानूनी पचड़े न होते तो सोलह बार क्या एक बार भी कामना को ससुराल भेजने की जरूरत नहीं थी.
वहां उसका था भी क्या. स्मृतियां जाले का शक्ल ले चुकीं थी और परिचित खूंखार हो चुके थे. मां ने, लेकिन, विरोध किया. वो उस खटिए पर बैठ गई जिस पर कामना को लिटाया गया था. तकलीफ में कामना करवट तक नहीं बदल पा रही थी. वरना उसकी चाहत हो रही थी कि वो किसी ऐसे करवट घूम जाए जहां से इन सबका चेहरा न दिखे.
मां को मशक्कत से मनाना पड़ा. उसे खुद को यह यकीन दिलाना पड़ा कि बेटी के जीवन से घर का कुछ भला हो सकता है. इस तरह दो दिनों में नईहर से ससुराल और ससुराल से वापस नईहर के कुल सोलह चक्कर लगे. दोनों तरफ, इत्तेफाक कि, गाड़ियां भी एक जैसी ही थीं- छोटा हाथी. बारी बारी से गाड़ियां कामना को या क्या पता कामना के शव को नईहर और ससुराल के सीमाने पर छोड़ कर चली आ रही थीं. यह सब वकीलों और गांव के बुजुर्गों की देखरेख में हो रहा था.
तीसरे दिन यानी सोलहवें चक्कर की बारी, कामना की मां ने ही पूछा, ‘देख तो लो, क्या पता कुछ खाना पीना चाहती हो?’ मां तटस्थ दिखने की कोशिश कर रही थी, उसे लग रहा था कि बेटी के लिए उमगते भय और स्नेह का पता घर वालों को चलेगा तो कहीं बुरा न मान जाएं. एक भौजाई गाड़ी के पास गई. यहां उसे अनजाने ही बढ़त हासिल हुई. कामना जिस चारपाई से बंधी पड़ी थी उस पर समय खर्चा, नब्ज टटोलती रही और मारे अचरज और खुशी के, रोने लगी.
मृतक के घर में ऐसा कोई न कोई निकल आता है जिसे शोक के सभी भाव स्थगित करने पड़ते हैं और लोहार, हजाम, पुरोहित आदि को बारंबार बुलाने जाना पड़ता है. कामना के भतीजे के जिम्मे यह काम आया. पुरोहित ने घर बैठे ही कफन-दफन के सामानों की सूची लिखा दी. कफन पहनाने से पूर्व पानी के गलबल छींटे मारकर कामना के शव को नहलाने की रस्म निभाई गई. पूरे शरीर में घी मलने की बारी आई. मां ने अपना संताप परे रख यह काम लिया पर बेटी का चेहरा देख वहीं बैठ गईं और बिन आवाज रोती रही. मंझली भौजाइयों ने घी मलने का काम पूरा किया.
टिकठी ( अर्थी का सामान ) के लिए बांस की जरूरत थी. सतऊ लोहार खुद न आकर अपने बेटे अयोध्या को भेज दिया. अब सतऊ के बड़े बेटे अयोध्या ही इस गांव की लोहारी देखते हैं. बंटवारे में अयोध्या के हिस्से दो गांव आए हैं और बाकी के दो बेटों के हिस्से एक एक गांव. वो दोनों बेटे शहर जाकर बढ़ईगिरी करते हैं. अयोध्या इस पेशे में नए हैं फिर भी भिज्ञ हैं. टिकठी के लिए हमेशा तीन बांस उसी घर की ‘बंसवाड़ी’ से काटते हैं जिनके यहां मृत्यु आई होती है.
इस बार गांव के तीन बड़े घरों की बंसकोठी से एक एक बांस लिया. अयोध्या चूंकि मृतका के उम्र भर से वाकिफ थे इसलिए उनका कहना था, बांस मजबूत चाहिए. अयोध्या बांस काटते गए और मृत कामना के तीन भाई उसे बंसकोठी से खींचकर निकालते और फिर अपने दरवाजे पर लाकर रखते गए. टिकठी तैयार होने में एक घड़ी का समय लगा.
कामना के घर का मजाक बनते-बनते तब बचा जब भावनाओं के उछाह में बड़ी भाभी ने सिन्होरा ( सिंदूरदान ) भेजकर टिकठी के पास रखवा दिया. रोहू हजाम ने बताया, ‘विधवाओं के साथ कुछ नहीं जाता.’ चुपके से उस सिनहोरे को अंदर भेज दिया गया. वैसे, वहां मौजूद वकील ने इसे अपनी पराजय माना. अगर सिन्होरा भेजने की परंपरा होती तो अदालत में एक मौका यह भी कहने को मिलता, ससुराल पक्ष ने निर्दयतापूर्वक सिन्होरा दबा लिया इसलिए कामना के शव का संस्कार भी अधूरा हुआ. वकील का मानना था कि न्यायाधीश अधूरे संस्कार के इस तर्क पर विह्वल हो जाते और अगर नईहर के पक्ष में फैसला न सुनाते तो कम से कम सुनाने का मन तो बना ही लेते.
कामना का शव-दाह सरयू किनारे होना था. घर से आठ कोस दूर. अर्थी लेकर इतनी दूर पैदल चलना कठिन है, फिर भी लोग जाते हैं. इस बार लगभग सारा गांव, नंगे पांव, कामना की शवयात्रा में निकल पड़ा था. दर्जी गांव में ही रह गया. लोगों ने पूछा भी पर वो आने से इंकार कर गया. समूचे रास्ते बारी बारी से लोग कांधा बदलते गए.
शव को घर से उठाकर और घाट पर फूकने के बीच पांच दफे ही जमीन पर रखा जा सकता है, जिसमें एक बार गांव के सीमाने पर रखने का भी चलन है. इसलिए बाकी के रास्ते में हर दो कोस पर अर्थी रखी जाती और लोग सुस्ताते. यहां से नए लोगों का समूह अर्थी उठाते हुए आगे बढ़ रहा था. कोशिश यही थी कि एकसमान ऊंचाई के लोग ही एक बार कंधा दें ताकि शव इधर-उधर न खिसक जाए और वजन किसी एक तरफ ही न बढ़ जाए पर घाट पहुंचते पहुंचते कामना का शव पीछे की ओर लुढ़क आया था.
छलगलैया गांव के बूढ़े बरगद के नीचे, जहां अंतिम दफा शव को जमीन पर रखा गया, साईकिलहा और पैदल शवयात्री आराम फरमा रहे थे कि किसी ने खबर सुनाई- नायगांव ( ससुराल ) वाले घाट पर दल बल के साथ इंतजार कर रहे हैं. सबका कलेजा सूख आया. वकील ने बताया, जरूर वो लोग लाश छीनने की कोशिश करेंगे. उन लोगो के पास बंदूकें थीं जो वो लेकर आए होंगे. नईहर के लोग इस आशंका से अनभिज्ञ थे इसलिए कुछेक के हाथ में टेक वाली लाठी के अलावा कुछ न था.
शवयात्रा को विराम दिया गया. लोग साईकिलों से वापस लौटे और जिस भी हालत में उनके पास जो भी हथियार मिले, लेकर आए. टॉगी और कुदाल से लेकर कट्टा-बंदूक सब लेकर आए और शवयात्रा आगे बढ़ी. दोपहर सबके कलेजे पर चढ़कर बोल रही थी. नदी का किनारा और उसकी तपती रेत का विस्तार इतना खुला था कि कोस भर दूर से ही लोगों के पांव जलने शुरू हुए. कूदते फांदते, रेत और सरयू नदी को गाली देते हुए लोग शव लेकर नदी की ही ओर भाग रहे थे.
नदी धूप की तरह चमक रही थी और उस खुले में इतनी रोशनी थी कि चौंध से सभी अंधे हुए जा रहे थे. डोम बुलाया गया. लकड़ी और गोईठा गांव से ही आया था. डोम से दो किलो नीम की लकड़ी रस्म पूरी करने के लिए ली गई.
चिता सजाने के लिए लोग आम की मोटी बल्लियां नीचे बिछा रहे थे तो डोम ने टोका. आम की लकड़ी जल्द जलती है इसलिए उसे ऊपर रखिए. नीचे जामुन और खैर की लकड़ी रखी गई. लाश को तुरंत ही उस पर रख देना चाहिए था पर इस बात के फैसले में देर हो गई कि मुखाग्नि कौन देगा? सभी भाई अपनी विनम्र और अश्रुपूरित दावेदारी पेश कर रहे थे पर बड़े भाई ने अपने बेटे नरेश , यानी कामना के भतीजे को, आगे कर निर्णायक बढ़त ले ली. मंझले ने अपने बेटे की बात चलाई पर सभी ने एक स्वर में कहा, ‘उसका उपनयन संस्कार (जनेऊ) नहीं हुआ है इसलिए वो अयोग्य है.’
इधर चिता पर शव रखा जा रहा था और उधर पुरोहित नरेश को नदी स्नान के लिए तैयार कर रहा था. स्नान के बाद हजाम ने किनारे के कुछ बाल उतार लिए. अब आग जलाने की बारी थी जिसे डोम से लेना था. डोम को भनक पड़ चुकी थी कि मोटी जायदाद का मामला है इसलिए वो आग देने से पहले हजार रुपये की दक्षिणा पर अड़ गया. जबकि नईहर पक्ष ने ग्यारह रुपये की तैयारी कर रखी थी. गांव के बिचवान आगे आए. डोम चिता स्थान छोड़ कर अपने डीह पर चला आया, पीछे-पीछे कामना के भाई तथा कुछ लोग भी आए.
ऐन उसी पल शोर का वह सैलाब उठा. यात्री अतीत के कंधे पर बैठकर देखें तो कह सकते हैं सब कुछ कितना सोचा समझा था पर उस वक्त किसी को यह समझ में नहीं आया कि हो क्या रहा है. ससुराल वाले ने एक साथ छ या सात ‘फायर’कर कामना की चिता का अपहरण करने आ गए. पहले उनका इरादा सिर्फ शव लूटने का था. चिता वो खुद ही सजाना चाहते थे पर शव लूटना संभव होते न देख उन लोगों ने  चिता पर ही धावा बोल दिया. जवाब में इधर से भी धुआंधार हवाई फायरिंग हुई. कुल्हाडियां, कुदाल और लाठी की लड़ाई शुरू हुई.
सबके हाथ सिर्फ इसलिए बंधे थे कि उन्हें कर्मकांड सहित शवदाह करना था वरना अदालत में उनका पक्ष कमजोर पड़ जाता, वरना अब तक चिता आग पकड़ चुकी होती. इस तरह, खून खराबे वाली मारपीट में चिता बिखरने लगी और सबसे तेज चीख तब मची जब किसी की कुल्हाड़ी का भारी वार शव पर पड़ा. फिर तो इतने टुकड़े हुए कि चिता का वह क्षेत्रफल लकड़ियों के बजाय खून से भर गया. लोगों को खोज-खोज कर पीटा जा रहा था. सरे बाजार ऐसा दंगा कभी नहीं देखा गया.
देर रात जब उन्माद थमा तो नदी का वह किनारा गिरे हुए पुरुषों से पटा पड़ा था. वकील जो भाग चुके थे वो नए तरकीबों के साथ वापस आए. तय हुआ कि जो भी यह साबित कर देगा, शवदाह उसके जरिए हुआ है, उसकी दावेदारी मजबूत होगी.
कामना के कुल एक सौ छप्पन शव उस रात जले. दोनों मुद्दई पक्ष पीछे छूट गए. दोनों गांवों के ताकतवर लोगों ने लाश के टुकड़े चुन-चुन कर नदी के किनारे सौ से उपर चिताएं जलाईं. कामना के भाईयों को होश आया तो वे भी चिता सजाने में लग गए. लकड़ियां खरीदने का धन नहीं था, इसलिए वहीं तय हुआ कि जायदाद का दसवां हिस्सा लकड़ी वाले को देना होगा. डोम भी दसवें हिस्से में मान जाता पर उसकी पत्नी ने भर मुंह गाली देते हुए उसे आग देने से मना कर दिया. सबने खुद ही आग जलाई और सब ऐसे किस्से गढ़ने लगे- कामना के जीवन में उनके घर परिवार का कितना बड़ा योगदान रहा है. बड़े भाई को चिता के लिए कामना का कटा हुआ पंजा मिला. दूसरे भाई ने कुहनी को लाश बनाकर जलाया. पुरोहित ने कितनों को कुश का शव बना कर दिया, उसे याद नहीं. पहले उसने गिनना शुरू किया पर दसवें हिस्से के उन्माद में गिनना ही भूल गया. मान बैठा कि जो ईमानदार होगा वो खुद ब खुद हिस्सा दे देगा.
मंझले भाइयों में से एक को जब कुछ न मिला तो उसने अपनी कमीज मूल चिता के पास फैले रक्त में डूबो कर चिता सजाई. कामना के जेठ और देवर भी कुछ खून उधार मांग कर ले गए. भाइयों ने अब जाकर सोचा, ‘जायदाद, किसी तीसरे को मिले इससे अच्छा है कि जिनका था उनके ही पास रह जाए. इसलिए उन लोगों ने उधार में नहीं बल्कि सहयोग भावना से खून तथा कामना के शरीर के कुछ टुकड़े खोज कर ससुराल वालों को दिए.
कस्बे के सारे हज्जाम बुला लिए गए. एक सौ छप्पन मुंडन में करते-कराते सुबह हो आई.  सबसे जल्द और विधि-विधान के अनुसार, ग्राम प्रधान समेत आठ घर वालों ने शवदाह के कार्यक्रम निपटाए. कचहरी में भी इन सबने जो खेल खेला वह सराहनीय था. उन्होंने दोनों पक्षों के वकीलों को तोड़कर खुद के लिए रख लिया. फिर भी कचहरी में एक सौ छप्पन आवेदन पहुंचे, जिनमें से कामना के दो भाइयों को छोड़ दें  तो किसी भी महत्वपूर्ण परिवार का आवेदन खारिज नहीं हुआ. फिर भी कामना के बड़े भाई ने बड़प्पन और दुलार में कहा, ‘अगर हम मुकदमा जीते तो सभी भाइयों में बराबर का हिस्सा बंटेगा.’
कामना की तस्वीर हर घर में मिल जाएगी. दालान या ओसारे में, ससम्मान टंगी इस तस्वीर से जुड़े अलग-अलग किस्से हर घर में मिल जाएंगे। 

प्रेषिता 
गीता पंडित 

साभार 
http://tehelkahindi.com/शुभकामना-का-शव/

Tuesday, January 7, 2014

गीतकार किशन सरोज के पाँच गीत

.....
.......




गीत कवि की व्यथा १ ____


ओ लेखनी विश्राम कर
अब और यात्रायें नहीं

मंगल कलश पर
काव्य के अब शब्द
के स्वस्तिक न रच
अक्षम समीक्षायें
परख सकतीं न
कवि का झूठ सच

लिख मत गुलाबी पंक्तियाँ
गिन छ्न्द, मात्रायें नहीं

बन्दी अधेंरे
कक्ष में अनुभूति की
शिल्पा छुअन
वादों विवादों में
घिरा साहित्य का
शिक्षा सदन

अनगिन प्रवक्ता हैं यहाँ
बस छात्र छात्रायें नहीं
.........







ताल सा हिलता रहा मन____

धर गये मेंहदी रचे 
दो हाथ जल में दीप
जन्म जन्मों ताल सा हिलता रहा मन

बांचते हम रह गये अन्तर्कथा
स्वर्णकेशा गीतवधुओं की व्यथा
ले गया चुनकर कमल कोई हठी युवराज
देर तक शैवाल सा हिलता रहा मन

जंगलों का दुख, तटों की त्रासदी
भूल सुख से सो गयी कोई नदी
थक गयी लड़ती हवाओं से अभागी नाव
और झीने पाल सा हिलता रहा मन

तुम गये क्या जग हुआ अंधा कुँआ
रेल छूटी रह गया केवल धुँआ
गुनगुनाते हम भरी आँखों फिरे सब रात
हाथ के रूमाल सा हिलता रहा मन
.......




अनसुने अध्यक्ष हम____

बाँह फैलाए खड़े, 
निरुपाय, तट के वृक्ष हम
ओ नदी! दो चार पल, ठहरो हमारे पास भी ।

चाँद को छाती लगा
फिर सो गया नीलाभ जल
जागता मन के अंधेरों में
घिरा निर्जन महल

और इस निर्जन महल के 
एक सूने कक्ष हम
ओ भटकते जुगनुओ ! उतरो हमारे पास भी ।

मोह में आकाश के
हम जुड़ न पाए नीड़ से
ले न पाए हम प्रशंसा-पत्र
कोई भीड़ से

अश्रु की उजड़ी सभा के, 
अनसुने अध्यक्ष हम
ओ कमल की पंखुरी! बिखरो हमारे पास भी ।

लेखनी को हम बनाए
गीतवंती बाँसुरी
ढूंढते परमाणुओं की
धुंध में अलकापुरी

अग्नि-घाटी में भटकते, 
एक शापित यक्ष हम
ओ जलदकेशी प्रिये! सँवरो हमारे पास भी ।
………




नींद सुख की फिर हमें सोने न देगा _____

नींद सुख की 
फिर हमें सोने न देगा
यह तुम्हारे नैन में तिरता हुआ जल ।

छू लिए भीगे कमल-
भीगी ॠचाएँ
मन हुए गीले-
बहीं गीली हवाएँ

बहुत सम्भव है डुबो दे 
सृष्टि सारी
दृष्टि के आकाश में घिरता हुआ जल ।

हिमशिखर, सागर, नदी-
झीलें, सरोवर
ओस, आँसू, मेघ, मधु-
श्रम-बिंदु, निर्झर

रूप धर अनगिन कथा 
कहता दुखों की
जोगियों-सा घूमता-फिरता हुआ जल ।

लाख बाँहों में कसें
अब ये शिलाएँ
लाख आमंत्रित करें
गिरि-कंदराएँ

अब समंदर तक 
पहुँचकर ही रुकेगा
पर्वतों से टूटकर गिरता हुआ जल ।
……… 





तुम निश्चिंत रहना____

कर दिए लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र, तुम निश्चिन्त रहना

धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनु तुम
छू गए नत भाल पर्वत हो गया मन
बूंद भर जल बन गया पूरा समंदर
पा तुम्हारा दुख तथागत हो गया मन
अश्रु जन्मा गीत कमलों से सुवासित
यह नदी होगी नहीं अपवित्र, तुम निश्चिन्त रहना

दूर हूँ तुमसे न अब बातें उठें
मैं स्वयं रंगीन दर्पण तोड़ आया
वह नगर, वे राजपथ, वे चौंक-गलियाँ
हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया
थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित
छोड़ आया वे पुराने मित्र, तुम निश्चिंत रहना

लो विसर्जन आज वासंती छुअन का
साथ बीने सीप-शंखों का विसर्जन
गुँथ न पाए कनुप्रिया के कुंतलों में
उन अभागे मोर पंखों का विसर्जन
उस कथा का जो न हो पाई प्रकाशित
मर चुका है एक-एक चरित्र, तुम निश्चिंत रहना
………… 

प्रेषिता 
गीता पंडित 
साभार (कविता कोश से )

Wednesday, January 1, 2014

पाँच कवितायेँ ..... अनुज लुगुन




                                                           

समुद्र से लौटते हुए ____


समुद्र की देह पर
पिघल रहा है सूरज
उसकी लौ बुझने को है
और अब मैं लौट रहा हूँ
समुद्र से घर की ओर, इस वक़्त
मेरे घर की दिशा पूरब ही होनी चाहिए

मैं मुठभेड़ कर लौटता हूँ
समुद्र से घर की ओर
छोटी नाव के मछुवारे की तरह
कुछ छोटी मछलियां ही उपलब्धि होती हैं
मेरे जीवन की,
घर पहुँचने पर मेरी पत्नी कहती है कि
मुझे गहरे समुद्र में जाल फेंकना चाहिए
लेकिन मैं नेताओं, अधिकारियों, न्यायधीशों
और राज–कारिन्दों के सामने कम पड़ जाता हूँ,
अपनी छोटी सफलताओं पर ख़ुश होने का नाटक करते हुए
पत्नी से कहता हूँ कि आज सब्ज़ी कम दम पर मोल लाया हूँ

हर बार भिड़ता हूँ
रोजमर्रा की तू-तू-मैं से
भीड़-भाड़ की धक्का-मुक्की से
राजनीतिक जुलूसों में, प्रदर्शनों में
चिड़ी होकर चिड़ीमारों से
संविधान की धाराओं से, अनुच्छेदों से,

हर बार विशाल समुद्र से
लौटता हूँ घर की ओर
हर बार घर लौटते हुए
मेरे घर की दिशा पूरब ही होती है कि
अगले दिन सूरज की जगह मैं उदित होऊँगा
………








सुनो ___

माँ के वक्ष-सा
भू पर बिखरे पर्वत
आसमान को थाह लेने की आकांक्षा में
ज़मीन पर खड़े वृक्ष 
धूप में सूखती नदी के गीले केश
पान कराते हैं जो दैनिक
चिड़ियों और जानवरों के आहट से संगीत
मूक खड़े कह रहे हैं
कातर दृष्टि से-
मत ललकारों हमें
मूक हैं किन्तु
अपना अधिकार मालूम है
जो भी प्रतिक्रिया होगी
वह प्रतिशोध नहीं
हक़ की लड़ाई होगी
क्यों तोड़ रहे हो
हमारे घरौन्दों को
हमें क्यों सिमटा कर रख देना चाहते हो
क्या ये जग केवल तुम्हारा है?
न तेरा न मेरा
हम दोनों का यह संसार
कुछ कहता हमसे मूक संसार।
संवेदन शून्य हम नहीं
हममें भी पीड़ा है
यह तुम्हारी विवेकता का प्रमाण नहीं
शान्त, निर्दोष को छेड़ते हो
हमें भी उन्मुक्त उड़ान की चाह है
जितना पर काटोगे
हम उतना ही फड़केंगे ।
सुधार लो अपना चाल-चलन व्यवहार
हमारे साथ खुद भी मिट जाओगे
न हो जंग आर-पार
कुछ कहता हमसे मूक संसार ।
परीक्षा उचित है किन्तु
अपनी सीमा में
हमारे धैर्य का बाँध जब टूटेगा
टूटेगा मानव तुमपर
टपदाओं का पहाड़
हाथ ऊपर उठेंगें
आँखें बन्द होंगी
किन्तु इस दिखावे से कुछ न होगा
पूजना हो तो
अपने अस्तित्व को पूजो
जो हमसे जुड़ा है।
बाँट लें आपस में प्यार
दोनों का यह अधिकार
कुछ कहता हमसे मूक संसार ।

…………





सबसे बड़ा आश्चर्य ____

सबसे बड़ा  आश्चर्य वह  नहीं
जिसे हम देखना चाहते हों
और देख नहीं पाते
जैसे देश के सबसे पिछड़े क्षेत्र में बैठकर
देखना चाहते हों
ताजमहल या एफिल टावर।

सबसे बड़ा आश्चर्य वह नहीं
जो अंतरिक्ष से भी दीख पड़े
तिनके की तरह ही सही
जैसे दिखाई पड़ती है चीन की दीवार।

सबसे बड़ा आश्चर्य यह नहीं
कि कितनी कलात्मकता से बनाया गया है
ताजमहल या एफिल टावर।

वे हाथ जो नंगे पैर
आवेशित धूप में
बालू, सीमेंट से काढ़ लेते हैं
ताजमहल की-सी कलात्मकता
या खड़ी कर देते हैं चीन की दीवार
जिनके स्मरण में होता है काम के बाद
रात में उनकी पत्नियों के हाथों
तवे पर इठलाती रोटियाँ
जिसके स्वाद का सीधा संबंध
उनके पेट से होता है
सबसे बड़ा आश्चर्य होता है,
जिसको पाने की जद्दोजहद में
रोज़ ईंटों से दबती हैं अँगुलियाँ
और अँगुलियाँ हैं जो
ईंटों का शुक्रिया अदा करती हैं ।

सबसे बड़ा  होता है रोटी
जो तरसी आँखों के सामने
दूसरों के हाथ खेलती दिखाई देती है
और आँखें केवल देखती रह जाती हैं
जिसके होने मात्र के आभास से
पृथ्वी सम लगती है ग्लोब की तरह
नहीं तो यहाँ भी काँटे हैं
खाईयाँ हैं, ऊबड़-खाबड़
………





मैं घायल शिकारी हूँ ____

मैं घायल शिकारी हूँ
मेरे साथी मारे जा चुके हैं
हमने छापामारी की थी 
जब हमारी फ़सलों पर जानवरों ने धावा बोला था 

...हमने कार्रवाई की उनके ख़िलाफ़ 
जब उन्होंने मानने से इनकार कर दिया कि 
फ़सल हमारी है और हमने ही उसे जोत–कोड कर उपजाया है 
हमने उन्हें बताया कि 
कैसे मुश्किल होता है बंजर ज़मीन को उपजाऊ बनाना 
किसी बीज को अंकुरित करने मे कितना ख़ून जलता है 
हमने हाथ जोड़े, गुहार की 
लेकिन वे अपनी ज़िद पर अड़े रहे कि 
फ़सल उनकी है,
फ़सल जिस ज़मीन पर खड़ी है वह उनकी है 
और हमें उनकी दया पर रहना चाहिए 

हमें गुरिल्ले और छापामार तरीके ख़ूब आते हैं 
लेकिन हमने पहले गीत गाए 
माँदर और नगाड़े बजाते हुए उन्हें बताया कि देखो
फ़सल की जड़ें हमारी रगों को पहचानती हैं , 
फिर हमने सिंगबोंगा से कहा कि
वह उनकी मति शुद्ध कर दे 
उन्हें बताए कि फ़सलें ख़ून से सिंचित हैं ,

और जब हम उनकी सबसे बडी अदालत में पहुँचे
तब तक हमारी फ़सलें रौंदी जा चुकी थीं 
मेरा बेटा जिसका ब्याह पिछली ही पूरणिमा को हुआ था 
वह अपने साथियों के साथ सेंदेरा के लिए निकल पडा 

यह टूट्ता हुआ समय है 
पुरखों की आत्माएँ ,देवताओं की शक्ति छीन होती जा रही हैं 
हमारी सिद्धियाँ समाप्त हो रही हैं 
सेंदेरा से पहले हमने 
शिकारी देवता का आह्वान किया था लेकिन
हम पर काली छायाएँ हावी रहीं
हमारे साथी शहीद होते गए 

मैं यहाँ चट्टान के एक टीले पर बैठा 
फ़सलों को देख रहा हूँ 
फ़सलें रौन्दी जा चुकी हैं 
मेरे बदन से लहू रिस रहा है 
रात होने को है और 
मेरे बच्चे, मेरी औरत 
घर पर मेरा इंतज़ार कर रही है
मैं अपने शहीद साथियों को देखता हूँ 
अपने भूखे बच्चे और औरतों को देखता हूँ 
पर मुझे अफ़सोस नहीं होता 
मुझे विश्वास है कि 
वे भी मेरी खोज में इस टीले तक एक दिन ज़रूर पहुँचेंगे 

मैं उस फ़सल का सम्मान लौटाना चाहता हूँ 
जिसकी जड़ों में हमारी जड़ें हैं 
उसकी टहनियों में लोटते पंछियों को घोंसला लौटाना चाहता हूँ 
जिनके तिंनकों में हमारा घर है 
उस धरती के लिये बलिदान चाहता हूँ 
जिसने अपनी देह पर पेड़ों के उगने पर कभी आपत्ति नहीं की 
नदियों को कभी दुखी नहीं किया 
और जिसने हमें सिखाया कि
गीत चाहे पंछियों के हों या जंगल के 
किसी के दुश्मन नहीं होते 

मैं एक बूढ़ा शिकारी 
घायल और आहत 
लेकिन हौसला मेरी मुट्ठियों में है और 
उम्मीद हर हमले में 
मैं एक आख़िरी गीत अपनी धरती के लिए गाना चाहता हूँ 
.......... 




ग्लोब ___

मेरे हाथ में क़लम थी
और सामने विश्व का मानचित्र
मैं उसमें महान दार्शनिकों
और लेखकों की पंक्तियाँ ढूँढ़ने लगा
जिन्हें मैं गा सकूँ
लेकिन मुझे दिखाई दी
क्रूर शासकों द्वारा खींची गई लकीरें
उस पार के इंसानी ख़ून से
इस पार की लकीर, और
इस पार के इंसानी ख़ून से
उस पार की लकीर ।

मानचित्र की तमाम टेढ़ी-मेंढ़ी
रेखाओं को मिलाकर भी
मैं ढूँढ़ नही पाया
एक आदमी का चेहरा उभारने वाली रेखा
मेरी गर्दन ग्लोब की तरह ही झुक गई
और मैं रोने लगा ।

तमाम सुने-सुनाए, बताए
तर्कों को दरकिनार करते हुए
आज मैंने जाना
ग्लोब झुका हुआ क्यों है
……… 


सम्पादक 
गीता पंडित 
साभार (कविता कोश से )