Thursday, May 31, 2012

तीन नवगीत ..हाँ सुकन्या. शपथ तुम्हारी, ज़रा सुनो तो .... कुमार रवीन्द्र

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हाँ सुकन्या __


हाँ, सुकन्या!
यह नदी में बाढ़-सी तुम
कहाँ उमड़ी जा रही हो

उधर बड़का हाट -
उसमें तुम बिलाओगी
राजपथ पर
रोज़ ठोकर खाओगी

हाँ, सुकन्या!
वहाँ जा कर भूल जाओगी
गीत यह जो गा रही हो

अरी परबतिया!
यही पर्वत तुम्हारा है ठिकाना
यहीं से जन्मी
इसी में तुम समाना
हाँ, सुकन्या!
दूर के ढोल/सुन कर जिन्हें
तुम भरमा रही हो

इधर देखो
यही आश्रम है तुम्हारा
जिसे पूरखों ने 
तपस्या से सँवारा
हाँ, सुकन्या!
सुख मिलेगा यहीं सारा
खोजती तुम जिसे अब तक आ रही हो
......





शपथ तुम्हारी ___

शपथ तुम्हारी
हाँ, नदिया- पहाड़ जंगल
है शपथ तुम्हारी !

मरने नहीं उसे देंगे हम
जो तुमने है सौंपी थाती
यानी सपने, ढाई आख़र
औ' दीये की जलती बाती

होने कभी नहीं
देंगे हम
अपने पोखर का जल खारी !

संग तुम्हारे हमने पूजे
इस धरती के सभी देवता
ग्रह-तारा-आकाश-हवाएँ
भेजा सबको रोज़ नेवता

तुलसीचौरे की
बटिया की
हमने है आरती उतारी !

नागफनी के काँटे बीने
और चुने आकाश-कुसुम भी
हमने सिरजे धूप-चाँदनी
बेमौसम के रचे धुँध भी

सारी दुनिया के
नाकों पर 
गई हमारी विरुद उचारी !
........



ज़रा सुनो तो ___

ज़रा सुनो तो
घर-घर में अब गीत हमारे
गूँज रहे हैं !

यहाँ चिता पर हम लेटे
हैं धुआँ हो रहे
और देह के कष्ट हमारे
सभी खो रहे

पार मृत्यु के
हम जीवन की नई पहेली
बूझ रहे हैं !

मंत्र रचे थे
हमने धरती के सुहाग के
जो साँसों में दहती हर पल
उसी आग के

उन्हीं अनूठे
मंत्रों से सब नए सूर्य को
पूज रहे हैं !

अंतिम गीत हमारा यह
रह गया अधूरा
हाँ, कल लौटेंगे हम
इसको करने पूरा

काल द्वीप पर
नए-नए सुर-ताल हमें अब
सूझ रहे हैं !
.......


संपादिका 
गीता पंडित 

(कविता कोश)  से साभार 



Tuesday, May 15, 2012

हमारी स्त्रियाँ ...... विमलेन्दु —



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वो स्त्रियाँ
बहुत दूर होती हैं हमसे
जिनकी देह से
मोगरे की गंध फूटती है,
और जिनकी चमक से
रौशन हो सकता है हमारा चन्द्रमा ।

उनके पास अपनी ही
एक अँधेरी गुफा होती है
जहाँ तक
ब्रह्मा के किसी सूर्य की पहुँच नहीं होती ।

हमारे जनपद की स्त्री
सभी प्रचलित गंधों को
खारिज़ कर देती है ।
एक दिन ऐसा भी आता है
कि एक खुशबू का ज़िक्र भी
उसके लिए
किसी सौतन से कम नहीं होता ।

हमें प्रेम करने वाली ये स्त्रियाँ
चौबीस कैरेट की नहीं होतीं
ये जल्दी टूटती नहीं
कि कुछ तांबा ज़रूर मिला होता है इनमें ।

ये हमें क्षमा कर देती हैं
तो इसका मतलब यह नहीं है
कि बहुत उदार हैं ये,
इन्हें पता है कि इनके लिए
क़तई क्षमाभाव नहीं है
दुनिया के पास ।

ज़रा सा चिन्तित
ये उस वक्त होती हैं
जब इनका रक्तस्राव बढ़ जाता है,
हालांकि
सिर्फ इन्हें ही पता होता है
कि यही है इनका अभेद्य दुर्ग ।

नटी हैं हमारी स्त्रियाँ
कभी कभार
जब ये दहक रही होती हैं अंगार सी
तब भी ओढ़ लेती हैं
बर्फ की चादर ।

न जाने किस गर्मी से
पिघलता रहता है
इनके दुखों का पहाड़,
कि इनकी आँखों से
निकलने वाली नदी में
साल भर रहता है पानी ।

इनके आँसू
हमेशा रहते हैं संदेह के घेरे में
कि ये अक्सर रोती हैं
अपना स्थगित रुदन ।

हमारी स्त्रियाँ
अक्सर अपने समय से
थोड़ा आगे
या ज़रा सा पीछे होती हैं,
बीच का समय
हमारे लिए छोड़ देती हैं ये ।
ये और बात है
कि इस छोड़े हुए वक्त में
हमें असुविधा होती है ।

हमारी स्त्रियों को
कम उमर में ही लग जाता है
पास की नज़र का चश्मा
जिसे आगे पीछे खिसका कर
वो बीनती रहती हैं कंकड़
दुनिया की चावल भरी थाली लेकर ।

यही वज़ह है कि हमारे पेट भरे होते हैं
और अपनी स्त्रियों के जागरण में
हम सो जाते हैं सुख से ।

.......




प्रस्तुतकर्ता 
गीता पंडित 





Monday, May 7, 2012

माँ __ कुँवर बेचैन, देख रही है माँ __ यश मानवीय , माँ __ गीता पंडित , मेरी माँ __रामेश्वर हिमांशु काम्बोज


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1
माँ ___ कुँवर बेचैन 


माँ!
तुम्हारे सज़ल आँचल ने
धूप से हमको बचाया है।
चाँदनी का घर बनाया है।

तुम अमृत की धार प्यासों को
ज्योति-रेखा सूरदासों को
संधि को आशीष की कविता
अस्मिता, मन के समासों को

माँ!
तुम्हारे तरल दृगजल ने
तीर्थ-जल का मान पाया है
सो गए मन को जगाया है।

तुम थके मन को अथक लोरी
प्यार से मनुहार की चोरी
नित्य ढुलकाती रहीं हम पर
दूध की दो गागरें कोरी

माँ!
तुम्हारे प्रीति के पल ने
आँसुओं को भी हँसाया है
बोलना मन को सिखाया है
.....


2
देख रही है माँ __ यश मालवीय 

जाती हुई धूप संध्या की
सेंक रही है माँ
अपना अप्रासंगिक होना
देख रही है माँ

भरा हुआ घर है
नाती पोतों से, बच्चों से
अन बोला बहुओं के बोले
बंद खिड़कियों से
दिन भर पकी उम्र के घुटने
टेक रही है माँ

फूली सरसों नही रही
अब खेतों में मन के
पिता नहीं हैं अब नस नस
क्या कंगन सी खनके
रस्ता थकी हुई यादों का
छेक रही है माँ 

बुझी बुझी आँखों ने
पर्वत से दिन काटे हैं
कपड़े नहीं, अलगनी पर
फैले सन्नाटे हैं
इधर उधर उड़ती सी नजरें
फेक रही है माँ
......



माँ __ गीता पंडित 


नाम 

तुम्हारा आते ही माँ ! 

मन में बदली छा जाती है |


नेह पत्र पर 

लिखे जो तुमने 

भाव अभी हैं आज अनूठे 

बेल लगी है 

संस्कार की 

सजा रही जो मन पर बूटे,


बूटे - 

बूटे नेह तुम्हारा 

मन की छजली भा जाती है |


देह कहीं भी 

रहे मगर माँ

मन तो पास तुम्हारे रहता 

शैशव में जो 

रूई धुनी थी

कात उसे संग-संग में बहता 


शब्दों 

में आकर हौले से 

मन की सजली गा जाती है |

.......



4
मेरी माँ __ रामेश्वर हिमांशु काम्बोज 

चिड़ियों के जगने से पहले
जग जाती थी मेरी माँ ।
ढिबरी के नीम उजाले में
पढ़ने मुझे बिठाती माँ ।
उसकी चक्की चलती रहती
गाय दूहना, दही बिलोना
सब कुछ करती जाती माँ ।
सही वक़्त पर बना नाश्ता
जीभर मुझे खिलाती माँ ।
घड़ी नहीं थी कहीं गाँव में
समय का पाठ पढ़ाती माँ ।
छप्पर के घर में रहकर भी
तनकर चलती –फिरती माँ ।
लाग –लपेट से नहीं वास्ता
खरी-खरी कह जाती माँ ।
बड़े अमीर बाप की बेटी
अभाव से टकराती माँ ।
धन –बात का उधार न सीखा
जो कहना कह जाती माँ
अस्सी बरस की इस उम्र ने
कमर झुका दी है माना ।
खाली बैठना रास नहीं
पल भर कब टिक पाती माँ ।
गाँव छोड़ना नहीं सुहाता
शहर में न रह पाती माँ ।
यहाँ न गाएँ ,सानी-पानी
मन कैसे बहलाती माँ ।
कुछ तो बेटे बहुत दूर हैं
कभी-कभी मिल पाती माँ ।
नाती-पोतों में बँटकर के
और बड़ी हो जाती माँ ।
मैं आज भी इतना छोटा
कठिन छूना है परछाई ।
जब –जब माँ माथा छूती है
जगती मुझमें तरुणाई ।
माँ से बड़ा कोई न तीरथ
ऐसा मैंने जाना है ।
माँ के चरणों में न्योछावर
करके ही कुछ पाना है ।

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प्रेषिका 
गीता पंडित 

साभार (कविता कोष ) से 





Tuesday, May 1, 2012

श्रमिक दिवस .... अधूरी आज़ादी .... मदन 'शलभ'


आज श्रमिक-दिवस पर यह गीत सभी कामगारों को समर्पित ___

सवेरा हुआ है , किरण रोशनी की
महल पर पड़ी ,झोंपड़ी तक न आई ,
अजब यह सवेरा , कि बाकी अँधेरा
गगन तो हंसा पर धरा हंस न पाई |

अभी  ब्याह के नाम पर बिक  रहे हैं
यहाँ राम लाखों , यहाँ कृष्ण अनगिन ,
उमा और सीता रुदन मूक करती
गरीबी अभागिन न बनती सुहागिन   |

    अभी  हा में रूप नीलाम होता
    अभी द्रोपदी  का फटा चीर खिंचता,
    कहीं बिक रहें हैं सुदामा अनेकों
    कहीं दुःख में धर्म-ईमान बिकता |

अभी हर नगर में , अभी हर डगर में,
पनपती बुराई , बिलखती भलाई
सवेरा हुआ है , किरण रोशनी की
महल पर पड़ी ,झोंपड़ी तक न आई |


मिलों की इन्हीं चिमनियों में युगों से
धुआँ बन श्रमिक का लहू उड़ रहा है,
हुआ कल यहाँ जो , वही आज शोषण ,
धनिक जी रहा है , श्रमिक मर रहा है ,

    अभी नित यहाँ शोषितों के शवों पर
    किसी के गगन तक महल उठ रहे हैं ,
    कहीं नित दीवाली , कहीं घोर मातम
    कहीं अश्रुगंगा , कहीं कहकहे हैं ,

कहीं महफ़िलें, प्यालियाँ और साकी
कहीं दीन की आह देती सुनाई ,
सवेरा हुआ है , किरण रोशनी की
महल पर पड़ी ,झोंपड़ी तक न आई  |


उठो, राष्ट्र के कर्णधारों  ! जवानों !
उठो , देश के अन्नदाता किसानों !
विषमता मिटा दो , गरीबी भगा दो
उठो क्रांति के आज सोते तरानों !

    महल हिल उठें ये , कुतुब , ताज काँपें
    नई जागरण भैरवी को गुंजाओ ,
    छिपी जो ऊषा ओ में आज धन की
    उसे दीन का द्वार , आँगन दिखाओ |

हँसें सब कमेरे , हँसें सब बसेरे
करो देश से दूर सारी बुराई ,
सवेरा हुआ है , किरण रोशनी की
महल पर पड़ी ,झोंपड़ी तक न आई | |



मदन 'शलभ'
शीघ्र प्रकाश्य (गीत संग्रह )से 

(यह रचना कई काव्य संकलनों में भी छप चुकी है )

प्रेषिता 
गीता पंडित