Monday, January 9, 2012

डॉ अलका सिंह का आलेख ...अशोक कुमार पाण्डेय के आलेख . ''कृतज्ञ पुरुष का आख्यान '' पर.





आज फुर्सत में 'अशोक कुमार पाण्डेय 'का आलेख ''कृतज्ञ पुरुष का आख्यान '' बहुत ध्यान से पढ़ा. पढ़कर अच्छा लगा कि किसी ने मेरे लिखे एक आलेख को गंभीरता से पढ़ा गंम्भीरता से लिए लिया और उसपर गंभीरता से लिखकर बाइज्ज़त टैग भी किया. इसलिए अशोक जी की मैं ह्रदय से आभारी हूँ. किंतु इस आलेख को पढने के बाद मेरा स्त्री मन थोडा सोच में है. सोच में इसलिये क्योंकि अशोक कुमार पाण्डेय लिखते हैं कि ''देवताले की स्त्री विषयक कविताओं पर बात करने से पहले मैं दो बातें स्पष्ट करना चाहता हूँ – पहली यह एक पुरुष की कविताएँ हैं और उन्हें कभी परकाया प्रवेश की ज़रूरत महसूस नहीं होती. दूसरी बात जो बहुत जोर देकर पाण्डेय जी कहते हैं कि '' ये एक कृतग्य और भावुक पारिवारिक कवि की कविताएँ हैं. ''


कुछ और वक्तव्य हैं जो जिसे रेखंकित करना मैं जरूरी समझती हूँ - 


1. ''हिन्दी साहित्य में किसी स्त्री विमर्श के प्रवेश के पहले ही देवताले और रघुवीर सहाय जैसे कवियों की कविताओं में स्त्री और उसका संसार अपने आदमकद रूप में पसरा पड़ा है.'' 


2. ''महिलाओं का श्रम और उसकी उपेक्षा देवताले की कविताओं में बार-बार आते हैं. और शायद इसीलिए स्त्रियों के प्रति वह एक गहरे कृतज्ञता के भाव से भरे हुए हैं. ''

3. ''जैसा कि मैंने पहले कहा कि ये एक पुरुष की कविताएँ हैं. इनमें स्त्री के उस श्रम के प्रति एक करुणा और एक क्षोभ तो है, लेकिन इससे आगे जाकर स्त्री को चूल्हे-चौकी से आजादी दिलाने की ज़िद नहीं. जहाँ औरत आती है वहाँ सुस्वादु भोजन मन से खिलाती हुई (माँ के सन्दर्भ में और फिर पत्नी के सन्दर्भ में भी इन कविताओं में स्नेह से भोजन परसने के दृश्य आते हैं) औरत सामने आती है. उसके श्रम से कातर पुरुष ने कभी यह नहीं कहा कि आ चूल्हे की जिम्मेवारी हम बाँट ले. इसीलिए वह भावुक और कृतग्य पुरुष के रूप में ही सामने आते हैं, एक सहयात्री साथी पुरुष के रूप में नहीं. यह उनकी स्त्री विषयक कविताओं की एक बड़ी सीमा है.''


मैं आज इन वक्तव्यों को समझने की कोशिश में उलझ गयी सी हूँ. उलझ इसलिये गयी हूँ क्योंकि मेरा स्त्री मन अब पुरुष कविता को नये सिरे से समझने को बेताब है क्योंकि आज तक जो भी लिखा और पढा गया है उसे 90 प्रतिशत पुरुष् ने ही लिखा है. स्त्री ने भी उस लिखे को बहुत सहज़ रूप से एक पाठक की तरह ना केवल पढा है बल्कि उसे सहज़ता से स्वीकार कर दाद भी दी है. आप अगर पूरा भारतीय साहित्य देखें तो पायेंगे कि आज तक किसी भी साहित्य के अन्दर स्त्री के मुह से जो कुछ कहलवाय भी गया है वो भी पुरुष रचित ही है 90 प्रतिशत. तो फिर ‘’यह एक पुरुष की कविताएँ हैं’’ इस वक्तव्य को मैं कैसे और किस रूप में देखूँ ? कैसे समझूँ इसे ? क्या इसे मैं एक पुरुष का अब तक के पुरुष लेखन का गौरव बोध की तरह देखूँ है (इसे एक तरह का अभिमान भी कह सकते हैं)? या कवि चन्द्र्कांत देवताले के एक बचाव पक्ष के वकील की तरह इस बयान को देखूँ ? या फिर एक पुरुष कवि के एक बेहद इमानदार कथन की तरह देखूँ? बहुत से सवाल हैं जो मन को विचलित भी कर रहे हैं और सोचने पर मजबूर भी क्योंकि यह कथन किसी एक कवि या सहित्यकार पर लागू नहीं होती. यह एक ऐसा कथन है जिसपर हिन्दी साहित्य और उसकी आलोचना का अब तक का सारा खाका पलट सकता है. यह कथन कबीर से लेकर अब तक के सभी कवियों को एक नये सिरे से समझने और सोचने को भी प्रेरित करता है. 




सच कहूँ तो मेरा स्त्री मन जैसे विचलित भी है और बहुत उद्धत है कि सम्पूर्ण सहित्य कम से कम हिन्दी साहित्य को एक बार स्त्री की नज़र से विवेचित करूँ और सबके सामने रखूँ. हलांकि अशोक कुमार पाण्डेय की मैं शुक्रगुजार हूँ कि पहली बार किसी पुरुष कवि ने किसी कवि पर चर्चा के दौरान् कहा है कि उसकी कवितायें एक पुरुष की कविताएँ हैं. कह्कर ये साफ तो कर दिया कि पुरुष लेखन की भी एक सीमा है और उसपर भी वैसे सवाल खडे किये जा सकते हैं जैसे कुछ दिनो पहले निरंजन शोत्रिय ने स्त्री रचनाकारों को लेकर खडा किया था कि स्त्री लेखन चुल्हे चौके से आगे नहीं बढ पाया है. 

मेरे मन में इस कथन को लेकर जो पहला बोध हुआ या कहें की जो पहली शंका उठी की कहीं पुरुष लेखन के गौरवबोध का वक्तव्य तो नहीं है वह तब थोडा कमजोर लगता है जब मैं अशोक कुमार पांडेय जी को व्यक्तिगत स्तर पर लेकर सोचती हूँ किंतु जैसे ही मैं पुरुष के सामूहिक वक्तव्य के रूप में इसे देखती हूँ मुझे अपनी शंका निर्मूल नहीं लगती. ( इस आलेख पर हुई चर्चा के दौरान अन्य कवि लेखकों की आम सहमति और समर्थन के बाद ऐसा ही लगता है. आप देखें गीता पंडित को छोड्कर किसी ने पुरुष लेखन के इस कठन पर कोई टीका तिप्प्णी नहीं की) यह बात निरजन श्रोत्रिय और कई अन्य मित्रों की वाल पर स्त्री लेखन के सम्बन्ध में हुई चर्चा से जाहिर होता रहा है. तो इस कथन को लिखते समय यदि यह भाव ना भी रहा हो लेकिन इस कथन ने इस भाव को भी स्वतह ही रेखंकित किया है. इसके समर्थन में कई बडे लेखकों कवियों के वक्तव्य को देखा जा सकता है. 

तो क्या यह कथन कवि चन्द्र्कांत देवताले के एक बचाव में था? यकीनन यह बचाव ही था. न केवल यह कथन बल्कि पूरा आलेख ही उनके सम्रर्थन और बचाव में था. आप उपर दिये सभी वक्तव्यों को इस सन्दर्भ में देख सकते हैं. कुछ शब्द देखें जो कवि की पुरजोर वकालत करते हैं. सबसे पहले शीर्षक्- ''कृतज्ञ पुरुष का आख्यान में कृतज और आख्यान , स्त्री और उसका संसार अपने आदमकद रूप में पसरा पड़ा है में . आदमकद और फिर पुरजोर बचाव कि - . उसके श्रम से कातर पुरुष ने कभी यह नहीं कहा कि आ चूल्हे की जिम्मेवारी हम बाँट ले. इसीलिए वह भावुक और कृतग्य पुरुष के रूप में ही सामने आते हैं, एक सहयात्री साथी पुरुष के रूप में नहीं. यह उनकी स्त्री विषयक कविताओं की एक बड़ी सीमा है.''

किंतु इसके साथ ही भले बचाव में कहा गया किंतु मुझे यह एक इमानदार कथन भी लगता है. इसके साथ साथ यह भी मह्सूस होता है कि पुरुष ने अपनी सीमा को स्वीकारना आरम्भ कर दिया है. क्योंकि जिस सन्दर्भ और जिस अन्दाज़ में पुरुष कविता हैकि बात कही गयी है वो बात अंत्तत: न केवल चन्द्र्कांत देवताले अपितु सभी कवियों खास कर चन्द्र्कांत देवताले और उनके सम्कालीन कवियों पर लागू होगी. 

अब बात ''कृतज्ञ पुरुष का आख्यान ‘’ में कृतज्ञता की. यह पूरा वक्तव्य मुझे झकझोर देता है. मजबूर करता है कि मैं ना केवल चन्द्रकांत देवताले की कविता को समझूँ बल्कि उनके पूरे दौर से भी गुजरूँ. मजबूर करता है कि उनकी कविता को स्त्री के भाव से एक बार पढ्कर देखूँ. सबसे पहले बात चन्द्र्कांत देवताले जी के दौर की फिर उनकी कविताओं की. 




अगर विकिपीडिया की माने तो चंद्रकांत देवताले क़ा जन्म सन १९३६ में हुआ था. यानि 2011 के पार अब वह 75 साल के हो गये. मतलब यह कि देवताले जी ने इस देश के कम से कम 50 सालों के इतिहास् को पूरे होश में देखा परखा और जाना है. मसलन जब होश संभाला होगा तो आज़ादी की लड़ाई और गान्धी जी का समय थोडा बहुत देखा होगा फिर , देश का बटवारा, नेहरू का शासन फिर इन्दिरा के शासन से लेकर जयप्रकाश आन्दोलन, मंडल आन्दोलन तथा आज तक की स्थिति से वो निरंतर अवगत रहे होंगे. नारी अन्दोलन से भी क्योंकि यह देव्ताले जी की युवा अवस्था का समय था जब नारी अन्दोलन त में सुग्बुगा रह था और कमला भसीन जैसी महिलायें लोग अपनी बात बात बडी शिद्द्त् से रख रही थीं. उस सुग्बुगाहट की आंच हिन्दी कविता और और उसके कवियों को छू न पायी यह बडा सवाल होगा हिन्दी कविता पर. बहरहाल हम जैसे लोग उस पूरे दौर और उसकी आंच की तलाश पुरुष कविता में अवश्य करने की कोशिश करेंगे क्योंकि यह पुरुष कविता पर स्त्री की समीक्षा होगी. और देवताले जी उस दौर के यदि प्रमुख हस्ताक्षर हैं तो इस मुल्ललिक्क उनकी कविताओं की पड्ताल भी जरूर होगी और सवाल उठेंगे ही. 



जैसा कि देवताले जी को जानने वाले जानते हैं कि वो न केवल भावुक कवि हैं बल्कि बेहद सजग और जागृत कवि हैं यही करण है कि उनकी रचनाओं में स्त्री और उसके जीवन का चित्रण बहुतायत में मिलता है. पर मुझे यहाँ कुछ कहना है वो ये कि जिस कविता का सन्दर्भ अशोक जी ने दिया है वह कविता मुझे किसी कृतज्ञता का आभास नहीं कराती.- 


पर घर आते ही जोरू पर
तुम टूट पड़ते हो बाज की तरह
मर्द, बास्साह, ठाकुर बन तन जाते हो
अपने माँस के लोथड़ों खातिर
आदमी बनने में भी शर्म आती है
मूंछें शायद इससे ही कट जाती हैं

कन्हैया, मोती, मांगू,उदयराम
अपनी जोरू अपने बच्चे
क्यों तुमको दुश्मन लगते हैं?

मुझे लगता है कि यह निश्चय ही एक पुरुष कविता है जो पुरुष, पुरुष की मन:स्थिति उसके तौर तरीके और अक्सर परिवार के प्रति एक खास वर्ग के पुरुष के रवैये ( वैसे थोडे पोलाइट रूप में यह सब हर पुरुष का रवैया होता है शायद) को बयान करती है. यहां मैं इस कविता की विवेचना में नहीं जाउंगी किंतु इतना दावे से कह सकती हूँ कि मुझ स्त्री को इस कविता में न तो स्त्री दिखती है ना ही कृतज्ञता. किंतु अशोक कहते हैं कि – ‘’इस विडंबना की पहचान देवताले जैसा संवेदनशील पारिवारिक कवि ही कर सकता है.’’ तो क्या इसे एक पुरुष कविता की पुरुष समीक्षा मानूँ? 



एक अन्य कविता जिसका जिकर अशोक ने किया है वो है ‘औरत’ निसन्देह यह एक अच्छी कविता है. उसे पढ्कर यह भान होता है कि हमारे समय के कुछ पुरुष इस बात को स्वीकार करते हैं कि स्त्री की हालत अच्छी नहीं है, यह स्वीकार करते हैं कि स्त्री की आज भी कोई पहचान नहीं .......... और भी बहुत सी स्थितियों को स्वीकार करता है किंतु इस तरह की सोच और स्वीकारोक्ति को क्या कृतज्ञता की परिभाषा के अंतर्गत रखा जाना चाहिये? क्या यह वास्तव में कृतज्ञता की ही श्रेणी में ही आता है ? यदि हाँ तो क्यों? क्या महज़ इसलिये कि उसने औरत की एक स्थिति का चित्रण किया है ? मेरा स्त्री मन यह स्वीकार नहीं करता बल्कि इस युग के पुरुष से बहुत सी अपेक्षायें रखता है और चाहता है कि वह सिर्फ चित्रण ही ना करे वह चूल्हे को बांट्ने के लिये हाथ् भी बढाये, औरत को उस स्थिति से निकालेने की जिद भी करे और उसका हाथ पक्ड उसे बाहर तक लाये भी. 

पर मेरे एक कवि मित्र कहते हैं कि 75 के व्यक्ति से आप इससे ज्यादा की क्या उम्मीद कर सकती हैं. मैं बडी सोच में पड जाती हूँ इस तरह के वक्तव्यों पर. कभी कभी मन होता है पूछूँ कि क्या चन्द्रकांत जी जैसे और उनके सम्कालीन कवियों ने लिखना छोड दिया है? या फिर वो इस दौर की उथल पुथल और बदलाव को सकरात्मक नज़रिये से नहीं देखते. अगर देखते हैं तो उन्होने यह भी जरूर देखा होगा कि स्त्री बोल रही है, देखा होगा कि स्त्री लिख रही है, पढा होगा कि वो क्या कह रही है फिर उनकी कवितओं में यह क्यों नही होता कि – आओ बाट लेंगे जिन्दगी के दुख – दर्द, क्यों नहीं होती ये जिद कि- कुछ तुम बदलो कुछ हम, क्यों नहीं पलट जाती दुनिया कि सुस्वादु कुछ मैं बनाऊँ आज ? 

यदि कवि कर्म में कहीं समाज के प्रति कोई नज़रिया है और स्त्री को लेकर रचनायें हैं तो यह बात तो होनी ही चाहिये. अगर नहीं है तो अपने सम्कालीन कवियत्रिओं को हिकारत की नज़र से न देखकर कि वो चूल्हा चौका ही लिखती है को गम्भीरता से देखकर तो कम से कम लिखा ही जाना चहिये यदि सम्वेदंशीलता और पारिवारिकता की भी बात् की जाये क्योंकि भोजन बनाना भी एक पारिवारिक कर्म है और वह पट्टे की तरह स्त्री के खाते में लिख दिया जाता है तो क्या पुरुष कवि इस बात से डरता है कि गर स्त्री के साथ बाँट्ने की इक्छा जाहिर कि तो कहीं ये जिन्न उसके सर न आ जाये? 

रही बात मेरे पिछले आलेख में उठाये गये सवालों की तो वो यथावत वहीं खडे हैं क्योंकि जिन कविताओं को आधार बनकर मैने सवाल उठाये थे वह भी देवताले जी की ही कविताओं की पंक्तियां हैं. एक पुरुष रचना!!!!1 


देखें - 


1. सचमुच मैं भाग जाता चन्द्रमा से, फूल से, कविता से 
नहीं सोचता कभी कोई बात जुल्म और ज्यादती के बारे में अगर नही होती प्रेम करने वाली कोई औरत इस पृथ्वी पर 
स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर ही मैने अपने आपको पह्चाना है 



2. ‘’ये उंगलियां समुद्र की लहरों से निकलकर आती हैं 
और एक थके – मांदे पस्त आदमी को 
हरे – भरे गाते दरख्त में बदल देती हैं’’ 



3. तुम्हारे एक स्तन से आकाश 
दूसरे से समुद्र आंखों से रोशनी 
तुम्हारी वेणी से बहता 
बसंत प्रपात 
जीवन तुम्हारी धडकनो से 
मैं जुगनू 
चमकता 
तम्हारी अन्धेरी 
नाभी के पास


हिन्दी साहित्य में किसी स्त्री विमर्श फिर कभी 




........................................ डा. अलका सिंह

4 comments:

vandana gupta said...

अलका जी आपकी समीक्षा को हर बार पढ रही हूँ और आपके प्रश्नो को समझ भी रही हूँ …………सोचने को विवश करती है आपकी सोच और प्रतिक्रिया …………इस पर मैने एक कविता लिखी है जिसमे पुरुष का पक्ष भी है कुछ हद तक मगर क्यों ये भी मैने लिखा है ………शायद कहीं ना कहीं हमारी ही कमजोरियों ने पुरुष को उसकी मानसिकता को ऐसा सोचने और करने पर विवश किया है और आज तो वो संस्कारो मे इतना गहरा बैठ गया है कि उससे इतर वो सोच ही नही पाते अब वक्त आ गया है कि हमे परिपाटियाँ बदलनी होंगी और उसके लिये आप जैसे समीक्षक की जरूरत है तभी जन जागृति संभव है।

Basant said...

Bahut kuch sahmat hoon. lekh acchaa aur tathyaatmak hai.Koi tippani na dekh aashchrya hua. Shayad purush maansikta ise sveekarne ko prastut nahin hai.

राजेश उत्‍साही said...

देवताले जी की कविताओं को इस नजरिए से देखना अच्‍छा लगा। आपने बहुत गंभीर विमर्श किया है।

Ashok Kumar pandey said...

इसका विस्तार में उत्तर मैंने मूल पोस्ट पर अलका जी के ब्लॉग पर दिया है.