Wednesday, October 26, 2011

कृष्णा .... सुमन केशरी

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मैं पांचाली-पुंश्चली
आज स्वयं को कृष्णा कहती हूँ
डंके की चोट!


मुझे कभी न भूलेगी कुरुसभा की अपनी कातर पुकार
और तुम्हारी उत्कंठा
मुझे आवृत्त कर लेने की


ओह! वे क्षण
बदल गई मैं
सुनो कृष्ण! मैंने तुम्हीं से प्रेम किया है
दोस्ती की है


तुमने कहा-
“अर्जुन मेरा मित्र मेरा हमरूप मेरा भक्त है
तुम इसकी हो जाओ
मैं उसकी हो गई”


तुमने कहा-
“माँ ने बाट दिया है तुमको अपने पाँचों बेटो के बीच
तुम बँट जाओ
मैं बँट गई


तुमने कहा-
सुभद्रा अर्जुन प्रिया है
स्वीकार लो उसे
और मैंने उसे स्वीकार लिया


प्रिय! यह सब इसलिए
कि तुम मेरे सखा हो
और प्रेम में तो यह होता ही है!


सब कहते हैं-
अर्जुन के मोह ने
हिमदंश दिया मुझे
किन्तु मैं जानती हूँ
कि तुम्हीं ने रोक लिए थे मेरे क़दम
मैं आज भी वहीं पड़ी हूँ प्रिय
मुझे केवल तुम्हारी वंशी की तान
सुनाई पड़ती है
अनहद नाद-सी ।


( साभार काव्यावली से )

प्रेषिका
गीता पंडित ..


Monday, October 17, 2011

एक आलेख---ज़िन्दगी न मिलेगी दुबारा .... रंजना भाटिया .

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ज़िन्दगी न मिलेगी दुबारा_____



दूर कहीं पहाड़ी पर सूरज की रोशनी फैली और पास बैठी नदी पर उतर गयी ..हवा कुछ तीखी हो गयी और एक काया फिर से वही हवा के पास आ कर खड़ी हो गयी ...तुम ..फिर से हवा ने उस काया से पूछा .....हाँ रहा नहीं गया कहा था न कि तेरी ही छाया हूँ तुझसे अधिक दूर नहीं रह पाती ..तूने ही तो मुझे बताया था कि मेरा जन्म कैसे हुआ ...बस एक बिंदु था ..उसी में कम्पन हुआ और कम्पन की लकीर से मेरा जन्म और मेरा नाम रखा गया ज़िन्दगी ...जैसे तब तुमने मुझे उस काल की बेटियों से मिलवाया था ...मैं फिर से धरती पर जा कर अब इस काल की बेटियों से मिलना चाहती हूँ ..देखना चाहती हूँ कि कितना बदल गया है अब सब ..२० सदी में तो देख कर मैं घबरा गयी थी ...अब तो २१ वी सदी है अब कुछ तो परिवर्तन हुआ होगा न .....हवा ने ठंडी साँस भर कर कहा ..कि हुआ होगा ..पर मूल भूत   ढाँचे कहाँ बदल पाते हैं ...अभी भी बहुत संघर्ष बाकी है ...........
चलो तुम्हे उसकी एक झलक यही पास में आये हैं हम वहां दिखाती हूँ ..


तुम्हे तो अपने का पति का किया भुगतना हो पड़ेगा क्यों कि तुम उसकी पत्नी हो इस लिए इस परिवार से तुम्हारा बायकट किया जाता है तुम अब हमारे परिवार कि किसी ख़ुशी गमी में शामिल नहीं हो सकती ..क्यों कि तुम्हारा पति हमें भला बुरा कहता है.गालियाँ देता है तो क्या हुआ ..तुम ठीक हो , सुसंस्कृत हो तो क्या फर्क पड़ता है उस से बेशक हम ही तुम्हे इस घर कि बहू बना कर लाये थे ...पर हम सिर्फ उसको तुम्हारा पति समझते हैं ..अपना बेटा नहीं .....
ज़िन्दगी ने हैरानी से हवा की  तरफ देखा .और कहा यह तो अभी वही दीवारे हैं परम्परा की दीवारे ,समाज की दीवारें ..अभी तक कुछ नहीं बदला ..क्या औरत खुद ही बदलना नहीं चाहती अब यह सब कुछ ..वाकई सदियाँ घर के बाहर से निकल जाती है ..........
तुम तो दूसरे घर से आई हो ..यहाँ तो घर भरा पूरा है ..तुम्हारे मायके में में तो इतना कुछ है नहीं ..इस लिए तुम हमारे घर से चोरी कर के कपडे अपने मायके में देती हो पर कुछ आवाज़ नहीं उठाना इस बारे में क्यों कि तुम बहू हो ..
..हमारी बेटी कि अभी शादी हुई ..बहुत गंदे है ससुराल वाले ...न ढंग से खाना देते हैं न सही से व्यवहार ..सोच रहे हैं उसको वापस यही बुला ले ...फूल सी हमारी बच्ची कैसे वहां रह पाएगी ...इल्जाम कुछ सोलिड होना चाहिए ..चलो ..पति पर ..इल्जाम लाग देते हैं .. ..और बेटी तो कमाती है सरकारी नौकरी है ..क्यों किसी की इतनी धौंस सहे ..बहू तो रह सकती है हमारा बेटा चाहे जैसा भी हो ..पर बेटी उसको तो हमने वापस लाना ही है ..बहू कहाँ खुद को बदलना चाहती है ...बदलना चाहती तो कुछ सख्त कदम उठाती ...कल की ही तो बात है .जब इसको कहा था हमने की


अरे !!तुम अपने दूर के भाई से क्यों इतना हंसती बोलती हो ..वो यहाँ क्यों आता जाता है ...? हमें तो तुम्हारा चरित्र ही ठीक नहीं लगता ....बुलाओ इसके माँ बाप को ...बताये इसकी यह सब रंग ढंग उन्हें ..कैसे संस्कार दिए हैं उन्होंने अपनी बेटी को ....न कोई ढंग की नौकरी करती है ..न ढंग से घर का काम ..मनहूस कहीं की जब से घर में आई है ..सब बिगड़ गया है ...बेटी घर वापस आ गयी है ...बेटे की नौकरी चली गयी है .पैरे पैरे लक्ष्मी .पैरे पैरे भाग्य ...पर इसने तो कोई रिएक्ट ही नहीं किया ...


सोच रहे हैं की  बेटी अब तलाक ले कर आ गयी है ..अब ज़िन्दगी का कुछ तो सहारा चाहिए ...आगे इसकी भी एक बेटी है ...मकान का एक हिस्सा इसके नाम कर देते हैं ..घर तो बना रहेगा ..दूसरी को भी देना होगा ..बेटे कि आगे दो बेटियाँ है .??सोचना होगा ..क्या सोचूं ..पर बेटा बहुत जिद्दी है जरुर लड़ाई करेगा कुछ अखड बुद्धि का है ..बहू भी अधिक बोलती नहीं ..पर समझती सब कुछ है ...चलो अभी एक के नाम तो करूँ  ..बाकी देखा जाएगा ...आगे क्या होता है ..और लड़ते मरते तो वैसे ही रहते हैं सब ...मेरे बाद क्या करेंगे मैं कौन सा देखने आ रहा हूँ ..बने न बने सब में .मुझे क्या ...


ज़िन्दगी ने हवा से कहा .उफ़ यह तो वही का वही ढंग है वही राग है ....फिर से वही कहानी सुनाओ ..जिसको गुजरे न जाने कितने साल गुजर गए .पर यह स्त्री खुद को कब बदलना सीखेगी कब अपने हक के लिए लड़ना सीखेगी  ....हवा कहने लगी न जाने कितने साल गुजर गए यह तब कि बात है पर वह परी वाली कहानी की परी नजाने कौन सी ग्रह दिशा में इस धरती को बदलने के लिए उतरी .और अपने पंख यही गुम कर बैठी .चुराए गए उन्ही पंखो में औरत के बदलने की इच्छा भी कहीं गुम हो कर रह गयी ...पर औरत की ख़ामोशी से ही जरुर एक दिन क्रांति की चेतना का जन्म होगा . और ज़िन्दगी का सही अर्थ समझ आएगा और हर अपशगुन तब शगुन में बदल जाएगा  .....यह काम खुद औरत को अपने लिए करना होगा ...किसी से डर कर जीना छोड़ना होगा ...समाज की  दुहाई परम्परा की दुहाई से हारना बंद करना होगा ..तभी फिर से स्त्रियों का नाम चेतना वंशी होगा ...



अमृता के लिखे उपन्यास उनके हस्ताक्षर से प्रेरित आस पास देखे कुछ वाक्यात ..........जो न जाने कब बदलेंगे खुद को ....और सोचेंगे की ज़िन्दगी न मिलेगी दुबारा ......


प्रेषिका
गीता पंडित 



Friday, October 14, 2011

चंडी दत्त शुक्ला की एक रचना..... साभार

करवाचौथ पर विशेष प्रेम की नि:शब्द करने वाली अनुभूति से ओतप्रोत 







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टेराकोटा, काली बंगा, चूड़ियां और प्रेम
पंद्रह सौ साल पहले
अनजान कबीले की उस औरत ने
पहनी होगी कलाई में चूड़ी
टेराकोटा से बनी


टेराकोटा, जो होती है लाल और काली
उससे बुनी चूड़ी का एक टुकड़ा
जो न बताओ तो नहीं लगता
श्रृंगार का जरिया


वो चूड़ी पहनकर वो औरत हंसी होगी
होंठों को एक दांत से दबाकर
पर तुम्हारी तो आंख से काजल बहने लगता है
तुम थर्राए होंठों से
पूछती हो
जिन हाथों में रही होगी ये चूड़ी
उन्हें किसी ने चूमा होगा ना


तुम सिहर उठती हो ये सोचकर
वक्त में घुल गई होगी वो औरत
मिट गया होगा उसका अस्तित्व
पर सुनो...चूड़ी कहां घुली?
नहीं ना
यकीन मानो
मिट्टी कभी नष्ट नहीं होती
चूड़ी टुकड़ा-टुकड़ा टूटी
लेकिन खत्म नहीं हुई
तुमने ही तो मुझे बताया था वसंतलता
ऐसे ही प्रेमियों और प्रेमिकाओं के तन नष्ट हो जाते हैं
पर कहां छीजता है प्रेम?


काली बंगा से लौटते वक्त
तुम बीन लाईं कहीं से चूड़ी का वो टुकड़ा
और मुझसे पूछती रही,
क्या होता है टेराकोटा
और ये भी
पंद्रहवी सदी में किस कबीले की औरत ने पहनी होगी
टेराकोटा से बनी ये चूड़ी
मेरे पास नहीं है कोई जवाब
बस, तुम्हारी लाई चूड़ी का वो टुकड़ा रखा है मेरे पास
सदा रहेगा शायद
मैं नहीं जानता काली बंगा के बारे में
न ही उन औरतों के बारे में
बस पता है प्रेम
जो पता नहीं कहां,
पेट में, दिल में, मन में या फिर आंसुओं में
पीर पैदा करता है
यकीन मानो
वो नष्ट नहीं होता कभी!


प्रेषिका 
गीता पंडित



Monday, October 10, 2011






Akhir Mamla Kya Hai! 
 --sheeba aslam fehmi

कल जो कुछ मेरे परिवार के साथ हुआ है उसकी एक बहुत ही संछिप्त प्रष्ठभूमि आप सब को बताना चाहती हूँ. घटना-क्रम इतना लम्बा है की इस समय एक एक घटना और लेखों पर प्रतिक्रिया का विवरण बताया नहीं जा सकता. मेरे परिवार पर अहमद बुख़ारी के गुंडों का यह पहला हमला नहीं है. पिछली घटनाओं की अब तक FIR नहीं लिखी गई है, जिसके लिए कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा है. मामले को पेंडिंग में देख कोर्ट ने अपनी तरफ़ से दिल्ली-पुलिस को आदेश दिए की हमें सुरक्षा मुहैया कराइ जाए, और 2008 से ही हमें पुलिस संरक्षण प्राप्त है. 


साथियों आपको मेरे परिचय की ज़रुरत नहीं. मैं क्या लिखती हूँ, किन मुद्दों को उठती हूँ ये कमोबेश आप जानते ही हैं. पिछले दिनों ndtv इंडिया पर अभिज्ञान प्रकाश के 'मुकाबला' कार्यक्रम में 'जिहाद' पर हुई बहस के बाद भी मुझे धमकियाँ मिली थीं. इसके पहले के लेखों में ग़ैर-प्रगतिशील मुल्ला वर्ग पर लिखने के कारण धमकियाँ मिलती ही रही हैं. कल भी जो घटना घटी उसमे कहा गया की 'टीवी पर जो बोलती हो वो काम नहीं आएगा'. 'परिवार के एक भी आदमी को ज़िन्दा नहीं छोड़ेंगे'. 'चंनेलवालों को बुला कर दिखा दो...

जहाँ तक इमाम अहमद बुख़ारी का सवाल है, मैंने कई लेखों में राष्ट्रीय धरोहर जामा मस्जिद को, बुख़ारी परिवार के चंगुल से आज़ाद कराने पर सख्त लिखा है .  


मेरे पति अरशद अली फ़हमीजी, जो की दीन-दुनिया पत्रिका के उप-संपादक हैं वे पत्रकार के साथ साथ एक RTI अकतिविस्ट भी हैं. अब तक वे विभिन्न मामलों में लगभग 20 RTI लगा चुके हैं. यह इत्तेफ़ाक है की मैंने और मेरे पति दोनों ने ही अब तक कई कवर stories ,लेख और रिपोर्ट्स की हैं जो की अहमद बुख़ारी के आर्थिक हितों के विरूद्ध हैं, जिनमे लीब्या के सदर कर्नल घद्दाफी के यहाँ से आनेवाली कैश मदद को रुकवाने से लेकर बुख़ारी के अवैध निर्माण जो की शाही जामा मस्जिद परिसर के अन्दर जबरन बनाए गए हैं, और जिनके लिए कोर्ट से आदेश हैं की इन्हें हटाया (तोड़ा) जाए, भी शामिल हैं. बुख़ारी के चुनावी फतवों पर मैंने हिंदी-अंग्रेज़ी और मेरे पति ने उर्दू में ख़ूब लिखा है. इसी के साथ साथ हमने एक पोस्टर काम्पैग्न भी चलाई है जिनमे बुख़ारी के भ्रष्टाचार के स्रोत्रों पर सवाल उठाए हैं. ये सभी बातें राष्ट्रीय मीडिया में ख़ूब उठाई गई हैं. 


इस समय जो सबसे ज़रूरी RTI जिसने बुख़ारी परिवार के हितों को आहत किया है वो है जिसमे हमने सम्बंधित विभाग से पूछा है की "जामा मस्जिद परिसर के अन्दर मौजूद Gate नंबर -3 में पार्क को क़ब्ज़ा कर उसे पार्किंग में बदल कर जो VIP पार्किंग चलाई जा रही है उसका क्या status है? क्या वह MCD द्वारा आवंटित पार्किंग है?" साथियों इस पार्किंग में कार के 50 /- प्रति ghanta और बस के 800/- प्रति दिन का रेट है, जो की पूरी दिल्ली में कहीं नहीं है. इस महंगी पार्किंग की कमाई सीधे बुख़ारी की जेब में जाती है, हर रोज़ यहाँ 150 से अधिक ही गाड़ियाँ आती हैं. अपने हालिया लेख 'ये शाही क्या होता है?' में भी इस मुद्दे को मैंने उठाया था, शायद आपको याद हो.


इसके अलावा जामा मस्जिद में चोरी की गाड़ियाँ काटी जाती हैं, जिसमे हाल ही में दो बार अपराधियों का रंगे हाथों पकड़वाया है. जामा मस्जिद क्षेत्र में अवैध करन्सी-एक्स्चंग की लगभग 350 अवैध दुकाने हैं जिनपर अगली RTI कल ही तैयार की गई थी... इन सभी मामलों में आर्थिक अपराधियों का अहित लाज़मी है और यह सभी अपराध किसकी छात्र छाया में पनप रहे हैं यह बताने की ज़रुरत नहीं.


परसों शाम ही एक कश्मीरी मज़दूर जो की gulf से लौटा था उसके लगभग 218000 /- के कर्रेंसी-एक्स्चंग के मामले में एक दूकानदार ने 44 हज़ार रूपये ये कह कर कम दिए की यह टैक्स और service चार्ज में कट गए,जबकि उसके पास इस कारोबार का licence भी नहीं, तो सरकारी टैक्स देने का सवाल ही नहीं पैदा होता. उस मज़दूर ने जब पैसा माँगा तो उसे मार कर भगा दिया गया. ऐसी सूरत में किसी ने उसे हमारे अख़बार के दफ़्तर भेजा की वहां मदद मिल सकती है. अरशद जी ने मामले को समझते हुए लोकल पुलिस को बुलाया और फिर उस दुकानदार को बुला कर मामला सुलझाने की कोशिश की.दुकानदार पैसा देने का राज़ी नहीं था इत्तेफ़ाक से वो उस अपराधी का बेटा निकला जो की चोरी की गाड़ियाँ कटवाता है. बहरहाल पुलिस के दबाव में उसे उस मज़दूर का पैसा वापिस करना पड़ा. लेकिन यह इत्तेफ़ाक था की दोनों मामले बाप-बेटे के निकले और दोनों ही अपराधी हैं और बुख़ारी के नजदीकी हैं तो उनके नाम की धौंस देते रहे. इस तरह कई चीज़ें आपस में  जुड़ गईं थीं, हमारे पास भी उसी शाम फ़ोन आ गया था की कल हिसाब चुकाया जाएगा, हमने पुलिस को इत्तेला भी कर दी थी..... बाक़ी, कल की घटना की शुरुआत भी 'इमाम बुख़ारी ज़िन्दाबाद', के नारों से हुई... बाद की सारी घटना आप सब जानते हैं  .... 


इस घड़ी में आप सब दोस्तों ने जो हौसला बढाया है, एक एक साथी के प्रति मैं बेहद शुक्रगुज़ार हूँ ... दिल चाह रहा है की एक एक का नाम ले कर शुक्रिया अदा करूँ... लेकिन इस वक़्त मुमकिन नहीं. 

bahooooot shukriya! 
शीबा!

plz excuse for the typos in the text. really tired and disoriented :(


प्रेषिका 
गीता पंडित 



Monday, October 3, 2011


शक्ति-पूजा और भारतीय स्त्री: उदय प्रकाश/अनामिका

मित्रो, भारत में शक्ति-पूजा की परम्परा और भारतीय समाज में स्त्री की दशा के सन्दर्भ में 
उदय प्रकाश और अनामिकासे बातचीत पर आधारित यह लेख पिछले साल दुर्गापूजा
 के अवसर पर राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हुआ था. आजकल नवरात्र चल रहा है इसलिए 
यह लेख प्रासंगिक है. पढ़ सकते हैं. शुक्रिया. - शशिकांत  

समाज की मुक्ति से जुड़ी है स्त्री की मुक्ति : उदय प्रकाश
उदय प्रकाश
मेरा मानना है कि यथार्थ को झुठलाने के
 लिए सबसे ज्यादा धर्म और आध्यात्म का
 इस्तेमाल किया जाता है, मामला चाहे 
स्त्री का हो या दलित का या हाशिए पर की अन्य अस्मिताओं का। हमारे यहां कहा 
जाता है कि काशी का राजा डोम था। उत्तर प्रदेश 
में ही विंध्यवासिनी देवी की पूजा की जाती है। 
   

दरअसल जब से स्त्री की सत्ता छीनी गई 
तब से उसकी पूजा की जाने लगी। दक्षिण 
और पूर्वोत्तर भारत में आज भी कई जगहों 
पर मातृसत्तात्मक समाज है। लेकिन 
पूरे उत्तर भारत का समाज मातृसत्तात्मक है। 

यहां आज भी कन्या भ्रूण हत्या, दहेज 
और खाप पंचायतों द्वारा प्रेम करने पर 
स्त्रियों की जान ले ली जाती है। दूसरी 
तरफ हम देखते हैं कि यही समाज दूर्गा की भी पूजा करता है।


यथार्थ यह है कि स्त्रियों की स्थिति यहां अच्छी नहीं है। मुझे लगता है कि स्त्री सशक्ती-
करण पर विचार करते हुए हमें पितृसत्तात्मक समाज की स्थापना पर गौर करना चाहिए। 
यूनानी सभ्यता में इडीपस की जीत पितृसत्तात्मक समाज की जीत मानी जाती है।


इस समय स्त्री पर ज्यादा जोर इसलिए दिया जा रहा है कि पुरुषसत्तात्मक समाज 
व्यवस्था के समने कई तरह की अस्मिताएं आ खड़ी हुई हैं। अस्मिताओं में बंटे समाज में 
जातियों, धर्मों आदि के टुकड़े करने पड़ेंगे। 

भारतीय समाज की संरचना यूरोप से भिन्न है, इसलिए यहां यूरोप की तरह सिर्फ स्त्री 
और पुरुष के बीच समाज को बांट कर नहीं देखा जा सकता। दलित कहां जाएंगे? आदिवासी 
कहां जाएंगे? हाशिए पर की कई और अस्मिताएं कहां जाएंगी? जेंडर भारत का अकेला 
मसला नहीं है। इसके साथ और भी कई गंभीर मुद्दे हैं।

यह सच है कि
 भारत की स्त्रियां आज घर से बाहर निकल रही हैं, लेकिन वह शिकार 
भी हो रही हैं। रॉबर्ट जेनसेन की बहुचर्चित किताब ‘‘गेटिंग ऑफ: पोर्नोग्राफी एंड दि एंड ऑफ 
मेस्कुलिनिटी’’ में उन्होंने माना है कि भूमंडलीकरण के बाद विज्ञापन, बाजार और नव 
साम्राज्यवादी आचरण के पीछे सबसे पहला मुखौटा स्त्री का है। 


रॉबर्ट जेनसेन बाजारवादी नारीवाद को ग्लोबल पोर्न इंडस्ट्री का ही विस्तार मानते हैं। 
स्त्री ,मुक्ति आंदोलन के इस रूप को बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों तक चलने वाले उस स्त्री 
स्वाधीनता संग्राम के साथ जोड़ पाने में कई बार मुझे भी मुश्किल होती है जिसमें स्त्री ने समाज 
के दलित और वंचित तबकों की मुक्ति का सपना देखा था।

इस संदर्भ में देखें तो हमारे सामने क्लारा जेटकिन, क्रुप्स काया, लेनिन की बीवी, एरन गुल, 
सीमोन द बोउवार, केट मिलेट और भारत में कस्तूरबा से लेकर बहुत सारी महिलाएं थीं, और 
आज भी मेधा पाटकर, वंदना शिवा, अरुंधति रॉय, सुनीता नारायण, आंग सान सूकी, इरोम 
शर्मिला आदि ऐसी महिलाएं हैं जो आज की सत्ता के विरुद्ध समूचे मानवीय समाज की मुक्ति के 
लिए संघर्ष कर रही हैं। इन्होंने कभी जेंडर का नारा नहीं दिया। इनका कोई गॉड फादर नहीं है।

दरअसल भारत में स्त्री मुक्ति का सवाल हाशिए पर के कई अन्य समूहों की मुक्ति से जुड़ा हुआ 
है। स्त्री को मुक्त करते हुए हमें पूरे समाज को मुक्त करना होगा। यह सच है कि यह शताब्दियों से 
सबसे उत्पीड़ित अस्मिता रही है और जब तक यह ऐसी अन्य अस्मिताओं को साथ नहीं लेती 
तब तक वह बाजार और अन्य पितृसत्तात्मक सत्ता का लाभ लेकर भले लाभ उठाए, यह एक खास
वर्ग का ही सत्तारोहण होगा, स्त्री की मुक्ति का नहीं। मुझे लगता है इस बात को जनता समझ 
चुकी है।

यह मत भूलें कि विजय लक्ष्मी पंडित से लेकर इंदिरा गांधी, मार्गेट थैचर और सोनिया गांधी 
तक, जयललिता से लेकर मायावती तक और भंडारनायके से लेकर शेख हसीना वाजिद तक 
सत्ता के शिखर तक पहुंचने वाली महिलाएं स्त्री नहीं बलिक पुरुष सत्ता की ही प्रतीक रही हैं, और 
यही बात संसकृति ओर साहित्य में भी लागू होती है। ये गॉड फादर्स की सत्ताएँ थीं और हैं, मां 
की सत्ता की प्रतिष्ठा कहीं नहीं हुई। 


फासीवाद के बाद सबसे ज्यादा दमन फॉकलैंड वार में मार्गेट थैचर ने किया। इंदिरा गांधी ने  
भारत के संसदीय इतिहास में पहली बार इमरजेंसी लगू की और लोगों की स्वतंत्रता की 
अभिव्यक्ति छीनी |बेगम खलिदा जिया बांग्लादेश में फौजी शासन लागू किया। जेंडर की निगाह 
से सत्ता को देखना मेरे लिए कभी सुकूनदेह नहीं रहा, क्योंकि मेरे लिए मान्यताओं का मूल्यांकन 
मायने रखता है।


स्त्री मुक्ति की राह में देह सबसे बड़ी बाधा : अनामिका
अनामिका
भारतीय परंपरा में शिव का संबंध शक्ति से है। शक्ति 
का सीधा संबंध स्त्री से है, स्त्री का प्रकृति से और प्रकृति 
का संबंध शक्ति से। शक्ति का ताल्लुक दुर्गा से है और दुर्गा 
को आद्य शक्ति कहा गया है। 
शक्ति के बिना मनुष्य शव के समान है। शक्ति का संचार 
होते ही वह सजीव, सचेतन और सक्रिय हो जाता है।  
शक्ति के बिना शिव भी शव के समान माने जाते हैं। 

वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो किसी भी पदार्थ में  
शिवत्व की शक्ति मंगल भाव से आती है। जब हम किसी देवता के 
के आगे सर झुकाते हैं तो तो हम उसकी शक्ति के आगे सिर झुकाते 
हैं और हमें लगता है कि वहां से एक तरह की एनर्जी हमारे भीतर
आ रही है |

देवी की पूजा इसलिए की जाती है क्योंकि उन्हें शक्ति स्वरूपा माना जाता है। उनके अंदर 
ममता, क्षमा, न्याय की शक्ति होती है। ममता और क्षमा से जब बात नहीं बनती तब न्याय की 
बात की जाती है | सांस्कृतिक रूप से इसे समझा जा सकता है।

आज की स्त्री जितनी थकी और हारी हुई है और सशक्तीकरण के लिए संघर्ष कर रही है उसे 
आधुनिकता के संदर्भ में समझने की जरूरत है। दरअसल स्त्री सशक्तीकरण की प्रक्रिया एक 
एतिहासिक प्रक्रिया है।  मध्यकालीन भारतीय समाज व्यवस्था में स्त्रियों की दशा अनुकूल 
नहीं थी।



उन्नीसवीं सदी में भारत में जब नवजागरण की शुरुआत हुई और स्वाधीनता आंदोलन में  
भारतमाता की जो छवि गढ़ी गई उसमें शक्ति का वही स्वरूप देखी गई। उस दौरान राजाराम 
मोहन राय एवं अन्य नवजागरणवादियों ने सती प्रथा, बाल विवाह का विरोध किया और विधवा 
विवाह की हिमाकत की| लेकिन मुझे लगता है कि उस वक्त स्त्रियों के राजनीतिक चेतना की बात 
नहीं उठाई गई।

महात्मा गांधी जब आए तो उन्होंने कहा कि अगर मानसिक और नैतिक बल की बात की 
जाये तो स्त्रियां ज्यादा नैतिक और सशक्त हैं। मुझे लगता है कि महात्मा गांधी ने पहली बार 
इस बात को समझा कि भारतीय स्त्रियां जब पढ़-लिख कर अपनी राजनीतिक चेतना के साथ 
सड़क पर आयेंगीं तो वे दहेज एवं अन्य सामाजिक कुप्रथाओं के खिलाफ ताकतवर रूप से खड़ी 
हिंगी और तभी भारतीय स्त्री समाज में सच्चे नवजागरण की शुरुआत होगी। उसके बाद हमने 
देखा कि भातीय स्त्रियाँ पढ़ लिखकर चेतना संपन्न होने लगी और बहुत सारी स्त्रियों ने आजादी 
की लडाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।

आजादी के बाद भारतीय स्त्रियों पर एक बड़ी जिम्मेदारी आई। पहले की स्त्री तन और मन से
अपने परिवार की सेवा करती थी लेकिन आजादी के बाद वह तन, मन और धन से अपने परिवार
की सेवा करने लगी, जिसके दायरे में रक्त और यौन संबंध के अलावा घर से बाहर, समाज, 
राजनाति  और कार्यस्थलों रपर बनाए गए उसके कई संबंध भी शामिल हुए। यानि कहा जा 
सकता है कि आधुनिक स्त्री ने अपने दिल का दायरा बढ़ाया |

जहां तक स्त्री शक्ति का सवाल है तो हर पुरुष की जिंदगी का सबसे यादगार संबंध किसी न
किसी स्त्री से जुड़ा होता है, चाहे वह मां के साथ जुड़ा हो या बहन के साथ अथवा प्रेमिका, पत्नी 
और बेटी के साथ। 
जब कभी कोई पुरुष बाहर की दुनिया से थक-हार कर घर आता है तो उसे सबसे ज्यादा नैतिक
और भावनात्मक सुरक्षा और समर्थन उसे स्त्री की तरफ से ही मिलती है। 

लेकिन आज भी स्त्री के सामने पुरुष का चेहरा उसे कमतर ही आंकते हुए, उसे आंखें दिखाते 
हुए और मारते-पीटते हुए ही आता है।  पुरुषों ने अपना चित्त - विस्तार नहीं किया।   पुरानी  
मानसिकता के पुरुषों में आज भी पूर्वग्रह बचे हुए हैं। उनको मांज-मांज कर ठीक करना है, जिस 
ह गंदे बर्तन को मांज मांज कर चमकाया जाता है उस तरह। 


स्त्री आंदोलन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि स्त्रियां मनोवैज्ञानिक तरीके से आंदोलन 
करती हैं स्त्री के हक की लड़ाई लड़ रही स्त्रियों ने कभी शस्त्र नहीं उठाया है। स्त्री सशक्तीकरण
आंदोलन हमेशा नि:शस्त्रीकरण  को प्रश्रय देता रहा है। इस पर गौर करने की जरूरत है।


पर्यावरण की सुरक्षा के लिए जूझ रही हैं स्त्रियां।  स्त्रियां हमेशा अपने समय के जो वृहत्तर  
सन्दर्भ रहे हैं उन्हें साथ लेकर चलती रही हैं। पश्चिम में रेडिकल फेमिनिज्म अश्वेतों के अधिकार 
दिलाने की लड़ाई में उनके साथ खड़ा था।


आज यह देखकर खुशी होती है कि भारत में गांव-गांव की स्त्रियों में भी यह चेतना आ रही 
है। वे अपने और अन्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सरोकारों के प्रति जागरूक हो रही 
है | स्त्री के अंदर की दुर्गा शक्ति अब जाग चुकी है। 

गांव-देहात से लेकर चौपाल तक वह अपने और वृहत्तर मानवीय सरोकारों के लिए उठ रही है। 
हालांकि देह अभी भी स्त्री मुक्ति की राह में एक बड़ी बाधा है। दुर्गा को भी इसीलिए शस्त्र उठाना  
पड़ा क्योंकि महिषासुर उनके साथ विवाह करना चाहता था।

             (शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित. राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित.)

साभार 


प्रेषिका 
गीता पंडित